Thursday 23 February 2017

जाडा मेहड़ू विसे सम्पूर्ण जानकारी

.       *जाडा मेहड़ू विसे सम्पूर्ण जानकारी*
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महेडवा गाव में आकर चापाजी महेडु ने बाड़ी पाई और चापाजी के स्यामदासजी पुत्र हुए और स्यामदासजी के धर्मदासजी, धीरजी, चंद्रावतजी, किसनसिंह और मेहकरणजी पाँच  पुत्र हुए, मेहकरणजी बड़े विद्धवान थे।
कविवर चारणों के महेडु शाखा का राज्यमान्य कवि था। उसका वास्तविक नाम आसकरण था। राजस्थान के कतिपय साहित्य वेताओं ने अपने ग्रंथों में उसका नाम मेंहकरण भी माना है। किंतु उसके वशंधरो ने तथा नवीन अन्वेषरण-अनुसंधान के अनुसार आसकरण नाम ही अधिक सही जान पड़ता है।
वह शरीर से भारी भरकम था। स्थूलकायता के कारण उसका जाडा नाम भी प्रचलित हुआ।
बादसाह अकबर ने जगमाल सिसोदिया सिरोही को सिरोही के राव सुरताण देवड़ा के विरुद्ध भेजा था। जाड्डाजी उस युद्ध में वीरता से  श्री जगमाल का सहयोग देते हुए वि.स. 1640 कार्तिक शुक्ला 11 को युद्ध में काम आ गये।
जाडाजी के चार भाई और थे। इनके वंसज बाड़ी में भी है, और राजोलाखुर्द, झुठा, जोधावास, बोरूदा में भी है।
जाडाजी के पुत्र कल्याणदासजी के पुत्र कर्मचन्दजी को वि.स. १६९७ में आसोज सुदी १० मुकाम अजमेर में राजा श्री रायसिंह राज टोडारायसिंह से जेथल्या गांव छः  घोडा की जागीर मिली। कर्मचन्दजी को गांव भाणपूरा बूंदी नरेश से जागीर में मिला था। इसी वंस में महेडु प्रभुदानजी जाडावत का जन्म हुआ। जो एक बहुत बड़े दानी हुए।
इसी वंश में महेडु कृपारामजी जाड़ावत हुये। शाहपूरा के राजा श्री उम्मेदसिंह ने अपने लघु पुत्र जालिमसिंह को युवराज बनाने के कारण अपने बड़े राजकुमार अदीतसिंह और पौत्र रणसिंह को मारने के लिए कामलिया नामक यवन को भेजा।  कालमिया ने ज्यो ही रणसिंह पर खङग प्रहार करना चाहा, परन्तु उसी समय रणसिंह के पुत्र भीमसिंह के हाथों से वह यवन मारा गया। राजा श्री उम्मेदसिंह का विचार पौत्र प्रपौत्रादि को मारकर जालमसिंह को युवराज बनाने का था। उसी समय महेडु कृपारामजी जाडावत ने जाकर राज सभा में यह दोहा सुनाया-

*​मिण चुण मोटाड़ाह, तै आगे खाभा बहुत।​*
*​चेलक चीतोड़ाह, अब तो छोड़ उम्मेद सी​*

इस दोहे से राजा का ह्रदय परिवर्तन हो गया और शाहपुर का राज कुटुंब मृत्य के मुख में जाने से बच गया।  देवलिया प्रतापगढ़ के शासक महारावत श्री उदेसिंह ने महेडु गुलाबसिंहजी जाडावत की बुद्धिमानी से प्रसन होकर पैर में स्वर्ण आभूषण व सचेई नामक गांव जागीर में दी। इनके सम्बध में यह दोहा प्रसिद्ध है-

*​सुला गोला सोहिता, दारु मांस पुलाब।​*
*​जिमावे जाडाहरो, गायड़ मल्ल गुलाब।।१​*

जाडा महेडु के वंशजो में स्वनाम धन्य महादान नामक वीर एवं श्रगाररस के सिद्धहस्त कवि हुए है। कुलदेवी चालकनेच की रोमकद जाती के छंद में की गई उनकी स्तुति तो बालको के रोग निवारण हेतु मन्त्र स्वरूप मानी गई है। उस स्तुति के प्रारंभ के दोहे इस प्रकार है-

*​चाळराय रै चाळरी, झाली सेवक झब।​*
*​वळीयो दिन टळीयो विघन, आगण फळीयो अब।।​*
*​दे झंझेड़ी रोग दुख, पग बेड़ी खळ पेच।​*
*​तू  बालक तेड़ी तठे, नेड़ी चाळकनेच​*

जोधपुर के विधाप्रेमी महाराजा मानसिंह ने महादान महेडु की प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी पसंद का गांव मांगने की छूट दे दी तब महादान महेडु ने अपना मंतव्य इस दोहे के माध्यम से प्रकट किया-

*​पांच कोस 'पचोटियो', आठ कोस 'आलास'।​*
*​नानेरा म्हारा नकै, समपौ 'सोढावास'।।​*

इसी वंश में आगे ग्राम जेथलिया में श्री साहिबदानजी हुए। रावराजा श्री फतेहसिंहजी उणीयारा ने उनका स विधि सम्मान किया और उनकी प्रशंसा में यह दोहा कहा-

*​साहिबा थारा अंक सह, घड़िया बेह घड़ाव।​*
*​जाणक कंचन में जिके, जड़िया रतन जड़ाव।।​*

श्री गोपसिंहजी जाडावत के ऊपर दुश्मनो ने अचानक हमला बोल दिया।
हमला बोलने वाले दुश्मनो को गोपसिंहजी ने युद्ध में ललकारा और थोड़ी सी देर में ही सभी दुश्मनो को रण खेत में सुला दिया। इनकी बहादुरी देखकर कविवर पृथ्वीसिंहजी महियारिया राजपुरा ने यह दोहे कहे-

*​समत इक्यासी जेठ सूद, बारस अरु रविवार।​*
*​जाडा हर किन्ही जब्बर, बाही खाग बकार।। १​*
*​आडा शत्रु आविया, कर गाढ़ा हद कोप।​*
*​जाडा हर किन्ही जब्बर, गाढ़ा दिल से गोप।। २​*
*​जाडा महेडु जंग में, रण गाढा पग रोप।​*
*​खाळ बहाया खून रा, घणा रंग तोय गोप।।३​*

वर्तमान समय में मऊ ठाकुर साहब श्री पीरदानजी जाडावत ने वि. स. १९९६ के भीषण दूर्भीक्ष के समय अपने एक हजार याचको के लिए बारह महीनों तक भोजन व्यवस्था की । इनके बारे में यह दोहे प्रशिद्ध है-

*​तरवर गंगा तीर, ताकव घुणी तापियो।​*
*​ते पायो तकदीर, पीर महड़वा पाटवी।। १​*
*​पीरा कहवे पात, इल ऊपर रहिज्यो अमर।​*
*​मग जण रो मां बाप, कलजुग में दूजो करण।।२​*

इसी वंस में शकरदानजी का जन्म वि. स. १९८६ मिती भादवा ७ को हुआ।
इनके पिता श्री भेरूदानजी थे।
पिता श्री का स्वर्गवास १९९८ में मिति आसोज सुदी ८ को हो गया। उस समय इनकी उम्र १२ वर्ष की थी।

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जाडा का पूर्वज मेलग मेहडु था। मैंलग मेवाड़ राज्य के बाड़ी ग्राम का निवासी था। मेलग के वंश में लूणपाल ख्यातिलब्ध व्यक्ति हुआ। 

जाड़ा मेंहडु जगमाल का आश्चित तथा कृपापात्र था।

जाडा मेंहडु की रचनाओं तथा ख्यातो में प्राप्त अन्य प्रसंगों से भी यह पाया जाता है कि जाडा मेहडु दत्ताणी के चर्चित युद्ध (वि. स्. १६४०) के बाद तक भी जीवित था। उपर्युक्त युद्ध घटना के पश्चात् नवाब खानखाना, रहीम राव केशवदास, भीमोत राठौड़, मानसिंह बागडिया चौहान तथा शार्दूल पवार आदि पर रचित कवि का उपलब्ध काव्य भी हमारे कथन की पुष्टि करता है। शार्दूल पवार और भोपत राठौड़ आदि के मध्य मार्गशीर्ष शुक्ला १५ स्. १६६३ वि. में युद्ध हुआ था। जिसका जाडा ने सविस्तार वर्णन किया है।

महाराज रायसिंह के जैसलमेर में विवाह और उस अवसर पर दान देने का गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा डॉ. सी. कुन्हनराजा तथा तत्सामयिक कवि गोपा सिढायच चारण के गीत इत्यादि से भी प्रमाणित है। अतः इन उल्लेखों के साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि रायसिंह जैसे दातार का जहां विवाह होगा, वहां कवि नहीं आये होंगे और उन्हें दान न दिया होगा, यह कैसे माना जा सकता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि कवि जाडा मेहड़ू सं. १६४९ में जीवित था और उसने बीकानेर नरेश से एक हाथी पाया था।

जाडा के तीन पुत्र और एक पुत्री थे। जिनके कल्याणदास, रूपसी, मोहनदास तथा कीका (कीकावती) नाम थे। 

कीकावती का विवाह ख्यातिलब्ध बारहठ लक्खा नांदणोत के साथ हुआ था। प्रसिद्ध महाकाव्य 'अवतार चरित्र' का प्रणोता, महाराणा राजसिंह मेवाड़ का काव्य गुरु तथा महाराजा मानसिंह जोधपुर का श्रद्धाभाजन नरहसिंहदास बारहठ और उसका अनुज गिरधरदास जाडा के दोहिते थे। 

जाडा के पूर्व निर्देशित तीनों पुत्रों में जेष्ठ कल्याणदास अपने समवर्ती चारण कवियों में अति सम्मानित, राज्यसभा-समितियों में प्रतिष्ठत तथा श्रेण्य कवि था। कल्याणदास को जोधपुर के महाराजा गजसिंह राठौड़ ने १६२३ तथा १६६४ वि. में क्रमश: एक लाख पसाव व एक हाथी तथा एक लाख पसाव प्रदान किया था। अब तक की अनुसंधान-अन्वेषण में कल्याणदास के राजस्थान के शासकों तथा योद्धाओं पर सर्जित कोई १२ वीरगीत ८ छप्पय और बूंदी राज्य के परम प्रतापी शासक राव रतन हाडा के युद्धों पर रचित 'राव रतन हाडा री वेली' खण्ड काव्य प्राप्त है। राव रतन हाडा री वेली जहां कोटा-बूंदी के हाडा शासकों के इतिहास के लिए महत्व की कृति है। वहां राजस्थानी वीर काव्य परंपरा की भी पाक्तीय रचना है। राजस्थानी के वेलिया गीत छंद में रचित यह डिंगल की उत्कृष्ट रचना है। रूपसी और मोहनदास का कविरूप में कहीं कोई परिचय अधावधि अनुपलब्ध है। मोहनदास के पुत्र बल्लू मेंहडु के गीत, कवित्त, दोहे आदि स्फुट छंद गुटको में यंत्रतंत्र मिलते हैं। वह बूंदी के रावराजा शत्रुशाल, महाराजा अजीतसिंह जोधपुर महाराजा सवाई जयसिंह कछवाहा आदि का समकालीन था। रावराजा शत्रुशाल ने उसे बूंदी का ठीकरिया गांव प्रदान किया था।

कवि का काव्य सर्जनकाल वि. स्. १६२४ - १६७२ वि. तक स्थिर किया जा सकता है। तदनुपरात कवि रचित काव्य उपलब्ध नहीं हुआ है। इससे प्राप्त आधारों पर यह अनुमान किया जा सकता है कि स्. १६७१ - ७२ वि.  के पश्चात ही कवि का किसी समय निधन हो गया होगा?
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