Thursday 27 October 2016

श्री कानदासजी महेडु 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान

चारणकविश्रीकानदासमहेडुका1857केस्वातंत्र्यसंग्राममेंयोगदान-

कानदास महेडु ने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य में गुजरात के राजवीओं को ब्रितानियों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए प्रेरित किया हो और इसके कारण उनको फाँसी की सजा फरमाई गई हों ऐसी संभावनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों के विरूद्ध शस्त्र उठाने वाले सूरजमल्ल को उन्होंने आश्रय दिया था। इसके कारण उनका पाल गाँव छीन लिया गया था। इस संदर्भ में कुछेक दस्तावेज भी उपलब्ध होते हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् श्री रमणलाल धारैया ने यह उल्लेख किया है कि "खेडा जिले के डाकोर प्रदेश के ठाकोर सूरजमल्ल ने 15 जुलाई 1857 के दिन लुणावडा को मदद करने वाली कंपनी सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था। बर्कले ने उनको सचेत किया था किन्तु सूरजमल्ल ने पाला गांव की जागीरदार और अपने मित्र कानदास चारण और खानपुर के कोलीओं की सहायता से विद्रोह किया था। मेजर एन्डुजा और आलंबन की सेना द्वारा सूरजमल्ल और कानदास को पकड़ लेने के बाद उनको फाँसी की सजा दी गई और सूरजमल्ल मेवाड की ओर भाग निकले थे। आलंबन और मेजर एडूजा ने पाला गांव का संपूर्ण नाश किया था।"

डॉ. आर. के. धारैया ने 1857 इन गुजरात नाम ब्रिटिश ग्रंथ में भी उपर्युक्त जानकारी दी है। और अपने समर्थन के लिए Political depertment volumes में से आधार प्रस्तुत कर यह जानकारी दी है। इससे श्रद्धेय जानकारी मिलती है कि कानदास महेडु ने 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान दिया था। अलबत्ता यहाँ Kands charan और Pala का अंग्रेजी विकृत नाम है।

ब्रितानियों ने हमारे अनेक गाँवों के नाम अपने ढंग से उल्लेखित किये हैं। इसके लिए यहाँ बोम्बे, बरोडा, खेडा, अहमदाबाद, भरूच, कच्छ इत्यादि संदर्भों को उद्धृत किया जा सकता है। इससे यह पता लगता है कि कानदास महेडु अर्थात् कानदास चारण और Pala अर्थात् पाला एक ही है।

'चरोतर सर्वे संग्रहे' के लेखक पुरूषोत्तम शाह और चंद्रकांत कु. शाब भी यह उल्लेख करते है किं " कानदास महेडु सामरखा 1813 में संत कवि के रूप में सुप्रसिद्ध हुएं थे। 1857 के आंदोलन के बाद उनको आंदोलनकारियों को मदद करने के कारण पकड़ लिया गया था। कहा जाता है कि कवि ने जेल में देवों और दरियापीर की स्तुति गा कर अपनी जंजीरें तोड़ डाली थीं। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उनको छोड़ दिया था।"

1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में कानदास का गाँव जप्त कर लेने के दस्तावेजी आधार भी हैं। कवि ने कैद मुक्त होने के बाद अपना गांव वापस प्राप्त करने हेतु किया हुआ पत्राचार भी मिलता है। सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के चारण साहित्य हस्तप्रत भंडार में कानदास महेडु के इस प्रकार के दस्तावेज संग्रहीत हैं। अपने आप को ब्रितानियों की कैद से मुक्त करने हेतु दरियापीर की स्तुति करते हुए रचे गए छंद भी मिलते हैं।

ब्रितानियों ने कानदास को कैद कर उनको गोधरा की जेल में रखा था और उनके हाथ-पाँव में लोहे की भारी जंजीरें डालकर अंधेरी कोठरी में रखा गया था। अतः कवि ने अपने आपको मुक्त करने के लिए दरियापीर की स्तुति के छंद रचे और ब्रितानियों के सामने ही उनके कदाचार तथा अनुचित कार्यों को प्रकट किया। इन छंदो में कुछेक उदाहरण उद्धृत हैं-

अचणंक माथे पडी आफत, राखत केदे सोंप्यो;
वलि हलण चलण अति त्रिपति थानक जपत थियो;
दुल्ला महंमद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो...

(अचानक मुझ पर मुश्किल आई और कैद किया गया जहाँ बंधनों के कारण हवा में हलनचलन अति कष्टदायी बन गया और साथ ही मेरा गाँव (पाड़ला) भी जप्त किया गया। इस प्रकार मेरा मन घनघोर चिंताग्रस्त हुआ। इस परिस्थिति में ताकत कहां तक चल सकती थी। दरियापीर मेरी सहायता कर मेरी जंजीर तोड़ो।)

भूडंड कोप्यो भूरो, धार केहडो तिण घड़ी;
लोहा रा नूधी दियां लंगर, कियो कबजे कोटडी;
तिणे परे जडिया सखत ताला, उपर पैरो आवगो 
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो...

(धरती के खंभे जैसा दृष्ट ब्रिटिश अमलदार मुझ पर कोपायमान हुआ उस समय मेरी स्थिति कैसी हुई? हाथ-पाँव में लोहे की जंजीरें बाँधकर मुझे अंधेरी कोठरी में डाला गया और सख़्त ताला बंदी के उपरांत चौकीदार तैनात किया गया है। अतः हे दरियापीर मेरी मदद कीजिए।) ब्रितानियों के सामने ही उनकी भाषा, वेशभूषा अभक्ष्य खानपान आदि का उल्लेख करतें हुए कवि कहते हैं-

कलबली भाषा पेर कुरती, महेर नहीं दिल मांहिया;
तोफंग हाथ ने सीरे टोपी, सोइ न गणे सांइया;
हराम चीजां दीन हिंदु, लाल चेरो तण लगो 
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो...

(जो समझ में न आए ऐसी (कलबली) भाषा बोलते है और कुर्ता (पटलून) पहनते हैं वे निर्दयी और निष्ठुर हैं। हाथ में बंदूक और सिर पर टोपी रखते हैं, हिन्दू और मुसलमानों के लिए जो अग्राह्य है उस गाय और सुअर का मांस वे खाते हैं और लाल चहरे वाले हैं।)

शाखा न खत्री नहीं सौदर वैश ब्रम व कुल वहे;
हाले न मुसलमान हींदवी, कवण जाति तिण कहे,
असुध्य रहेवे खाय आमख, नाय जलमां होय नगो 
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो...

(जिसके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे कर्म नहीं है। हिन्दू या इस्लाम धर्म को मानते नहीं हैं, उसे किस जाति का मानना चाहिए। वे ब्रिटिश अपवित्र रहन-सहन, भ्रष्ट करने वाले और मांसाहारी है और निर्लज्जता से जल में नग्न स्नान करते हैं।)

इस तरह, कवि ने पाँच भियाखरी छंद, नौ गिया मालती छंद और एक छप्पय की रचना कर ब्रितानियों की उपस्थिति में दरियापीर की स्तुति की। लोक मान्यता के अनुसार इस छंद को बोलते समय तीन-तीन बार कानदासजी की जंजीर टूट गई। किन्तु लोक मान्यता को हम ज्यादा महत्व न दें फिर भी यह घटना ब्रितानियों के सम्मुख ही उनके कदाचार, अत्याचार और असंस्कारिता को खुले आम प्रकट करने की कवि की हिमम्मत, उनकी निडरता और सत्यप्रिय स्वभाव की प्रतीति कराती है।

ग्यारह मास की जेल के बाद कवि कानदासजी पर कानूनी कारवाई हुई, उनको प्राणदंड की सजा हुई, उनको तोप के सामने खड़ा रखा गया किन्तु तोप से विस्फोट नहीं हुआ। इससे या और कुछ कारण से कवि को ब्रितानियों ने मुक्त किया, उनका पाला गांव वापस नहीं किया।

सजा मुक्त हुए कानदासजी को वडोदरा के श्री खंडेराव गायकवाड़ ने अपने यहाँ राजकवि के रूप में रखा। उत्तरावस्था में उनका मान-सम्मान वृद्धि होने पर लूणावाड़ा के ठा. दलेलसिंह ने संदेश भेजा कि आपको पाला गांव वापस देना है, उसे स्वीकार करने हेतु पधारकर लूणावाड़ा की कचहरी पावन कीजिए। अलबत्ता दलेलसिंह ने 1857 में ब्रितानियों को मदद कर मातृभूमि के प्रति गद्दारी की थी, इसीलिए, कवि ने गांव वापस प्राप्त करने के बजाए उपालंभ युक्त दोहा लिखकर भेजा-

"रजपूतां सर रूठणो, कमहलां सूं केल;
तू उपर ठबका तणो, मारो दावो नथी दलेल"

इस तरह कवि ने व्यंजनापूर्ण बानी में दलेलसिंह को अक्षत्रिय घोषित किया, क्षत्रिय को डाँटने का चारण का अधिकार है।

कानदास महेडु ने सर्वस्व को दाव पर रखकर मातृभूमि को आजाद करनें के प्रयत्न किये हैं। इसी कारण से ही ब्रितानियों ने स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान कवि को कैद में रखकर उनको भारतीय प्रजा से अलग कर दिया गया ताकि वे काव्य सृजन द्वारा समाज में तद्नुरूप माहौल का निर्माण कर न सके।

ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजित सिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजित सिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजित सिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजित सिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। इनकी क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-

"मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;
गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत"

कानदास महेडु एवं अजित सिंह गेलवाने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।

जिस तरह पंचमहाल को जगाने का काम कानदास चारण और अजित सिंह गेलवा ने किया। इसी तरह ओखा के वाघेरो को प्रेरित करने का काम बाराडी के नागाजी चारण ने किया। 1857 में ब्रितानियों के सामने हथियार उठाने वाले जोधा माणेक और मुलु माणेक को बहारवटिया घोषित करके ब्रितानियों ने बड़ा अन्याय किया है। सही मायने में वह स्वतंत्रता सेनानी थे। आठ-आठ साल तक ब्रितानियों का प्रतिकार करने वाले वाघेर वीरों को ओखा प्रदेश की आम-जनता का साथ था। इस क्रांति की ज्वाला में स्त्री-पुरुषों ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी। आख़िर जब वह एक छोटे से मकान में चारों ओर से घिर गए थे, तब उनको हथियार छोड़ शरण में आने के लिए कहा गया। सिर्फ़ पाँच लोग ही बचे थे। सब को पूछा गया कि क्या किया जाय? तो तीन लोगों ने शरणागति ही एक मात्र उपाय होने की बात कही। मगर नागजी चारण ने हथियार छोड़ के शरणागत होने के बजाय अंतिम श्वास तक लड़ने की सलाह दी। चारों ओर से गोलियाँ एवं तोप के गोलों की आवाज़ उठ रही थी। उसी क्षण नागजी ने जो गीत गाया, वह आज सौ साल के बाद भी लोगों के रोम-रोम में नई चेतना भरता है। जोधा माणेक और मुलु माणेक हिंदू वाघेर थे, इतना ही नहीं इस गीत को गाने वाला भी चारण था। इसीलिए ओखा जाबेली शब्द का प्रयोग हुआ था। आज उसका अपभ्रंश पंक्ति में 'अल्ला बेली' गाया जाता है। नागजी चारण ने हथियार छोड़ने के बजाय वीरता से मर मिटने की बात करते हुए गाया था कि...

ना छंडिया हथियार, ओखा जा बेली;
ना छंडिया हथियार, मरवुं हकडी वार,
मूलूभा बंकडा, ना छंडिया हथियार...

चारण कवियों कि यह विशिष्ट पंरपरा रही है कि मातृभूमि के लिए या जीवनमूल्यों के लिए अपने प्राण की आहुति देने वाले की यशगाथा उन्होंने गायी है, इनाम, या अन्य लालच की अपेक्षा से नहीं।

इस तरह चारण साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि विदेशी और विधर्मी शासकों के सामने चारण कवियों ने सबसे पहले क्रांति की मशाल प्रज्जवलित की है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम से बावन वर्ष पूर्व 1805 में ही बांकीदास आशिया ने ब्रितानियों के कुकर्मो का पर्दाफाश किया था। जोधपुर के राजकवि का उत्तरदायित्व निभाते हुए भी बांकीदास ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आवाज उठाकर अपना चारणधर्म-युगधर्म निभाया था। 1857 से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक शताधिक चारण कवियों ने अपनी सहस्त्राधिक रचनाओं द्वारा भारत के सांस्कृतिक एवं चारणों की स्वातंत्र्य प्रीति का परिचय दिया है।

1857 में स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब फडनवीस के साथ साथ हर प्रांत में से जिन लोगों ने अपने-अपने प्राणों की आहुती दी है, उनका इतिहास में उल्लेख हो इसीलिए भारतीय साहित्य से या अन्य क्षेत्र से प्राप्त कर विविध आधारों का उपयोग करके नया इतिहास सच्चा इतिहास आलेखित हो यही अभ्यर्थनासह.

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कविस्वर वृजमालजी महेडु रचित विभा विलास

कविस्वर वृजमालजी महेडु रचित विभा विलास

करनि करुना करनजे। वरनि वेद विसेश ।।
मोकुं सोवर दीजिये । वरनो जाम विभेश ।।

शिवा सुलखमी सारदा । सरजण धरन संसार ।।
त्रसकत हरणी ताप त्रे । त्रगुणातम जगतार ।।

त्रगुण सरूपी ते रमे । व्यापक घटघट वेश ।।
जल थल इंड आकाशमें । अकल रूप आदेश ।।

ब्रह्मा विसन महेश वे । पार न कोइ पाय ।।
तोरी गत जांणे तुंही । महासकत महामाय ।।

आसापुरा उमया क्षिृया । करिये मुज कृपाह ।।
जदु वंसी जस जांणवा । इंछूं मन उच्छाह ।।

गोकल वस गोकुल पति । अकल ईश अवतार ।।
जनम लियो वसुदेव घर । भोमी उतारन भार
कहु चरित सब कृष्णके ।  बाढ़े गृंथ पृमान ।।बरनी सुछम बातसो । जया मति अनुमान ।।

वृजमालजी महेडु--वजापर जामनगर

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Tuesday 25 October 2016

महादान जी मैहडु

महादान जी मैहडु सरस्या
महादान जी एक समय सरस्या सै जोधपुर गयै थै आमकाश लगा हूआ था दरबार मै महादानजी नै एक दोहा कहा था जिससै दरबार बहूत खूश हूए व महादान जी का खूब आदर सत्कार हूआ व दरबार नै महादानजी को जोधपूर ही रहनै कै लिए अपना पक्ष रखकर गाव लैणै को कहा। जब महादान जी नै यै दोहा कहा व गाव मागै
पाच कोस पाचैटियो
आठ कोस आलास
इण बिच ननाणो मारो
सम्पो सोडावास

और फिर दरबार नै यह गाव दियै व महादानजी को हाथी पर बैठा कर खूद दरबार आगै चलकरकै सोढावास लायै व सोढावास सोपा
सोढावास महादान जी रहनै लगै चारणो कै गावो मै गढ नही होतै पर सोढावास मै है
उसका प्रमाण इस स्तूती मै है

गढ गाव दिराय चढाय गजां पर
आद भवानीय सहाय अयो

गढ वाला गाव गज कै ऊपर चढा कर दिया

ऐसा सम्मान चारण समाज मै दो चार चारण कवीयो को ही मिला है
एक सूर्यमल मिश्रण हरणा
करणीदान जी सूलवाडा
और महादान जी सरसीया

प्राप्त जानकारी-   सूर्य प्रकाश चारण
ठी मेहरू खुर्द (महीयारिया)
जिला अजमेर
हाल काकरोली"
+91 81072 88302

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महेडु जाती में प्रसिद्ध कवी

.             ​महेडु जाती में प्रसिद्ध कवि​
जय माताजी महेडु साखा में १.'व्रजमालजी महेडु वजापर,  २.मूळराजजी महेडु वजापर,  ३. जब्बरदानजी महेडु वजापर,  ४.'गोदडजी महेडु वालोवङ,  ५.'कानदासजी महेडु सामरखा,
६. मोतीसिंहजी महेडु सामरखा,   ७. रूपाळीबा महेडु सामरखा,   ८.'लागीदासजी महेडु गोलासन,  ९.'ठारणभाई महेडु पाटणा,  १०.रामदानजी महेडु देगाम,  ११. कवि हरियंद​ (हरिसींगजी-देगाम),  १२.सामदासजी महेडु,  १३.महेकरणजी महेडु सरस्या, १४.'महादानजी महेडु सोढावास,१५.लुणपालजी महेडु मेंड़वा, (देगाम)१६.शंकरदानजी जाड़ावत जेथलिया, और अभी हाल में १७.'शंकरदानजी महेडु सुहागी, १८.स्यामलदानजी महेडु सुहागी तक प्रसिद्ध कवियो ने जन्म लिया।
उपरोक्त माहिती-  विजयदान खुमानसिंहजी महेडु अहमदाबाद के द्वारा​- 98798 94595
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Monday 24 October 2016

MAHEDUKUL PEDHINAMA

MAHEDUKUL PEDHINAMA

📝📝📝📝📝📝📖🌙🌞⭐
Shankar - Parvati
Vijaypal( vijmal )
Mahedu
Keshoji
Khushalji
Girvardanji
10>10
Thakursi
11
Harraj ( chotebhai)
11
Gangadharji
Sankarji
Melang ( Kanjeli gav)
6
Lunpalji (12birud temurlang)
Sangramsinh
Khengarsinh
Samdasji ( sarngdharji )
Mehkarn ( jadoji ) sarsiya 84 village jahajpur - mevad
Kalyandasji
Surajmal
Bhimji
Pratapji
Anjoji( ajaaypal )
Sayaldan
Fatesinhji
Mahadan ( rupavash nanihal ) sodhavash
Modji
Karnidan

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चाल़कनेची का प्रहास शाणोर गीत – मीठा मीर डभाल

सरव परथम समरण मात तो शारदा,
रदे बीच भरोसो अडग राखूं !!
जीभ पर बिराजो आप मां जोगणी,
भवां चाळराय रा गुण भाखूं !!1!!
आप अम्ह बुद्धि बगसावजो आवड़ा,
करनल्ला मात तो महर कीजो !!
आपरो नाम लिय कर रहयो आपदा,
दयाळी उकत सध आप दीजो !!2!!
अधक महिमा इण ईळा म्ह आपरी,
सगती सरव जगत में आप साजो !!
तनां कहूं चाळका बाळको तिहारो,
थान सूं आय मां सहाय थाजो !!3!!
वखत पहलां तणी वात आ विदंगां,
ईळा पर आवियो समय ऐहड़ो !!
भाट अरज दाखवी आय भूपाळ ने,
नृप बतावो मोय कवि नेहड़ो !!4!!
कवि जो आय होड़ साथ म्हारे करै,
मुझ तणो हटावै गरव मोटो !!
प्रथीपत नहींतर हार मांनो परी,
खीतिपत राख नह मांण खोटो !!5!!
रौष नह कीजिये उतावळ रावजी,
भाट कव रीत रा वयण भाखो !!
विचारो दिलवसै सांभळो वातड़ी,
राव कां साव नह भाव राखो !!6!!
गुणी कव बोहो धरा गुजरात में,
शुकवीजन किरती करे सारी !!
जिकांह रे साहेजे सदाय जोगणी,
धर्यो खड़ग डाढाळी छत्रधारी !!7!!
कासद ने मेलयो कवि वरसड़ा कनें,
मावलजी हेत कर अरज मांनो !!
भाट होक्काट कर आवियो भाळवा,
कवि नह रहयो कां लियो कांनो !!8!!
आवियो वरसड़ो आख मोंय अधपति ,
ओ किम ऱाव आय हि हुओ कोपै !!
भजाळी तणो रख भरोसो भूपति,
लोवड़ियाळ लाज न मात लोपै !!9!!
बोहो कर गर्व जद भाट मुख बोलियो ,
चारण कवि होस तो आव सांमो !!
मंत्रां सूं बोलावै बाळ छः मास रो ,
करे बतावै आज ऐह कांमो !!10!!
मावल जद हेत कर सम्मरी मावड़ा,
आवड़ा इण वखत भीर आवो !!
लाज माहरी रख धारणी लोवड़ी,
दोह्यली घड़ी रो सुणो दावो !!11!!
भजाळी अरज ऐम सांभळै भवानी,
स्वपने में कहयो वैण साचो !!
बोलै बाळक आ तो जरियक बातड़ी,
कथूं हूं बोलावसूं कुंभ काचो !!12!!
रवि उगन्तां थकां गया सहु रावळै,
मावलजी करी जिका हौड मोटी !!
जीव व्हे जिका तो बोलन्ता जगत में,
करावूं गणणाट हूं कुंभ कोटी !!13!!
संभा बीच पाट जद मेलयो सेवकां,
जोवै सह मेदनी मिळै जाजी !!
भाट ओ थाट तो देखतां भड़कयो,
बोलावसौ कुंभ किम आज बाजी ?14!!
भाखै ईम भाट आ थाट ने भाळतां,
थाय कुंण वरसड़ा सहाय थारी !!
अजै तो कहूं हूं संभा रे आगळै,
स्वीकारो वात थई भूल सारी !!15!!
मन संशय करण लागेयो महपति ,
जो जीतीयो भट्ट तो पत जासी !!
आज उबारो बीस हत्थी आवड़ा,
थीं बीन कुंण मों सहाय थासी !!16!!
करो नह सौच ऐम मावल कहै ,
मात रो भरोसो हैं अडग मुन्नें !!
भमता कुंभ ने बोलन्तो भड़ाके,
तो रावजी मिळै नह राह तुन्नें !!17!!
वन्दन कर मात नें मावलजी विनवें,
जोगणी देखे किम लाज जातां !!
वार नह करी तो सांभळो वाढाळी,
प्राण नह रहसी आज पातां !!18!!
घुररर कर पाट जद लागयो घुमवा,
गणणण व्योम गणणाट गाजै !!
भणणाट नाद ऐम करायो भवानी,
वाजन्त्र छतीसां रा सुर वाजै !!19!!
हठीलो ध्रुजयो भाट कर हाकला,
मावलजी थई बोहो भूल म्हारी !!
पांव पकड़ने कूकीयो पौकदै ,
धणियाणीह चाळका बिरद धारी !!20!!
पलक में भाट ने पगां म्ह पाड़यो,
सवायोह बिरद जस द्वीप सातां !!
आंण वरतांणी चहुं लौक में आपरी,
वरसड़ा तणी रही अखियात वातां !!21!!
बिरद वधारण चारणा वरण रो ,
भाट रो गरव तें सेंग भांगो !!
मावल रे आगळै आय वो मावड़ी,
लाज लोपै झट पाय लागो !!22!!
चंडी ल्ये जनम उजळ वरण चारणां,
उबारणां काज अवतार आवै !!
माड़धर जनमी मांमड घर मावड़ी,
नैजाळी तिहारो थाग नावै !!23!!
लोवड़ियाळी हुई नवलक्ख चारणां,
थाय चहुं दिशा जयकार थारो !!
गावै गुण मीठियो मीर मां रावळा,
तरणी कर महर भवपार तारो !!24!!
~~मीठा मीर डभाल

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नमो चंडिका रुप चाळक्कनेची-वजमाल महेडू

चाळकनेची स्तुति
रचियता: वजमाल महेडू।
(प्रेषक: नरहरदानजी बाटी)
दोहा
सेवग काज सुधारणी, समयां देणी साद।
चाळकनेची चंडिका, देवी आदू अनाद॥1
छंद भुजंगी
तुही आदि अन्नादि वाणी विधाता।
तुंही रिध्धि सिद्धि नवेनिध्धि दाता।
वदे क्रोड तैतीस सुरं वरेची।
नमो चंडिका रुप चाळक्कनेची॥1
कळा चंद्र ज्योति झळेळे कपाळं।
वळे कुंडळं कान शोभंत माळं।
धरे शूल पाणं कृपाणं धरेची।
नमो चंडिका रुप चाळक्कनेची।2
प्रथी देश पारां करं प्रत्तपाळी।
वसे थान कालिंझरा टेक वाळी।
हरे शोक संताप तापं हरेची।
नमो चंडिका रुप चाळक्कनेची॥3
कई दैत मारे दळे झेर कीधा।
देवी देवनूं सुक्ख आणंद दीधा।
चळा चप्पळा तोतळा तुं चरेची।
नमो चंडिका रुप चाळ्ळकनेची॥4
इद्रांदिक देवां करे सेव आवी।
बृहमादिक जोगी तणां मन्न भावी।
नमे दाणवां देव नागं नरेची।
नमो चंडिका रुप चाळ्ळकनेची॥5
सुरं सात पाताळ भोमं निवासं।
वसे वास व्रहमंड एकासवासं।
डरे डुंगरे वन्नरे डुँगरेची।
नमो चंडिका रुप चाळ्ळकनेची॥6
गुणातीत रुपा वदी वेद ग्याता।
षटं शास्त्र पुराण वाचंत ख्याता।
भवं तारणं कारणं भव्वनेची।
नमो चंडिका रुप चाळ्ळकनेची॥7
जयो अंबिका त्र्यंबका जोगमाया।
परा पार ॐकार पारं न पाया।
गिण्यां पार नावे अपारं गणेची।
नमो चंडिका रुप चाळ्ळकनेची॥8
।कळश।
छंद छप्पय
प्रबळ तेज परचंड, इष्ट ब्रह्मांड उपावण।
सुरति सुरपुर मंड, खंड काव्यादि खपावण।
चंड मुंड मधु कीट,शुंभ निश्शुंभ संहारण।
रक्तबीज कर रोख़ , शोख़ महिखाषुर मारण।
त्रयलोक लोक रक्षा करण,मंगळ रुप महेसरी।
कवि दास वजो वंदे सदा,आदि शगति इशरी॥
~~वजमाल महेडू

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चाळकनेची चामुंडा – कवि श्री हमीर जी रतनू गाँव धडोई

कवि श्री हमीर जी रतनू गाँव धडोई कच्छ रा राजकवि री कहियोडी चाळकनेची री त्रिभंगी छंद रे मांय स्तुति ।
॥दोहा॥
गंग गया काशी गया, पावन किया निपाइ।
जग अभया विजया जया, उमिया खमिया आइ॥1
विमळा कमळा वीजळा, चख भुंभळा सुचंग।
महिला अकळा मंगळासकळ कळा शिव संग॥2
अवरी अमरी अपछरीशिकोतरी शकत्त।
आशापुरा अगोचरीमाहेशरी महत्त॥3
जग हरणी करणी जगत, सुर सामण सुभेद।
अशरण शरणी अपरणीवां वरणी चत्रवेद॥4
॥छंद त्रिभंगी॥
वेदां वंचाणी, पढे पुराणी, क्रोड विनाणी, कतियांणी।
कै काम कमाणी, अकह कहांणी, जय सुर राणी जगजाणी।
भाखे ब्रह्माणी, तुं मन भाणी, अविरळ वांणी, उदंडा।
रव राय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची, चामुंडा॥1
आशापुरा आई, देव दुगाई, महण मथाई, मंहमाई।
सतशील सदाई, जुध्ध जिताई, गाढ वडाई, गरवाई।
दैतां दुःखदाई, सुरां सहाई, खिति उपाई नव खंडा।
रवराय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची, चामुंडा॥2
सेवे बह भत्ती, जत्ती सत्ती, आद शगत्ति, अवगत्ती।
पावन प्रकत्ती, वेद वकत्ती, तुं सरसत्ती, त्रिशगति।
महामाय मुरत्ती, उत्तम अत्ती, सत्ती पत्ती पतसुंडा।
रव राय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची चामुंडा॥3
सुंदर हंसलाळी, सदा सुखाळी, रम्मतियाळी, रतियाळी।
कोहला गिरि वाळी, धरण कमाळी, बुढ्ढी बाळी, बिरदाळी।
त्रिपुराचर ताळी, मन मछराळी, पाप प्रजाळी परचंडा।
रव राय रवेची, मुंह माडेची चाळकनेची चामुंडा॥4
केहरि असवारी, अगन कुंवारी, मांस अहारी, मै वारी।
धन पुहच तिहारी, अज-अवतारी, तुं भव नारी, भवतारी।
पीयण रत पाडा, मारण जाडां, अहर अराडा अरिथंडा।
रव राय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची, चामुंडा॥5
माता मातंगी, उत्तम अंगी, वाण सुचंगी, वेदंगी।
त्रिचख अरधंगी, लहर तरंगी, निज भेदंगी, नादंगी।
निहकळ नकळंगी, रिध सिध रंगी, अजा उमंगी, उद्दंडा।
रव राय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची, चामुंडा॥6
वीरां रा टोळां, साथ सबोळां, झुल झकोळां, रमझोळां।
धूपां ढगसोळां, नित्त उधोळां, होय किलोळां, हिंगोळां।
जोगण खैंखट्टा, रुप विकट्टां, खेल झपट्टा खळ खंडां।
रव राय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची, चामुंडा॥7
उतरे आकाशं, विवरे वासं, वळे विळासं, कवळासं।
वड वडां तमासं, हास हुलासं, जोत प्रकाशं उजासं।
जग व्यापक जोई, कळे न कोई, पार न होई, पाखंडां।
रव राय रवेची, मुंह माडेची, चाळकनेची, चामुंडा॥8
॥कलश छप्पय॥
चाळराय चामुंड, माड मांडण महमाया।
चरिताळी चंडिका, काळिका कायम काया।
नव नेता भव नारि, नवे दुरगा नव निध्ध।
इम हमीर उच्चरै, शरम राखे हर सिध्धि।
सावित्रि गौरी लखमी शगति, गुण रज तमो सतोगुणी।
वीसहथी धनि थारी वडम, जय जाळंपा जोगणी॥
~~कवि श्री हमीर जी रतनू गाँव धडोई

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