Tuesday 28 February 2017

चाळराय चाळकनेची रो डिंगळ गीत - कवि केसरदानजी खिडिया*

  
चाळराय चाळकनेची रो डिंगळ गीत – कवि केसरदानजी खिडिया

     *॥गीत – प्रहास साणोर॥*

चरै  मां  संदशा  करै डसण विधि   चोगणी,
      खसण विध नोगणी धरै खूनां।
सोगणी   खितारै  धाक  चढि  आसुरां,
     
    जोगणी चितारै वयण जूनां॥1॥

आज   म्है  आविया  माढ  पग   अबरखे,
      डबर कै छांडि पग मती डागो।
दीसहत   खबर  कै  घणो  जग   देखसी,
      बीसहथ जबर कै देखि बागौ॥2॥

कवळ   कतळावियो  जेम  खाटक   करै,
      जिको अतळावियो केम जावै।
मात   बतळावियो   बोलियो   मातसूं,
    मेछ पतळावियो कठे मावै॥3॥

मात   हिंगळाज   सूं  अकर  चढ  मकरियो,
      चकरि चढ हकरियो रुधिर चगतो।
बिकट   चसमांण   जमदूत   गत   बकरियो,
    डकरियो गजब असमाण डिगतो॥4॥

हाँक   नवलाख   री  हेक  जिम  हुचकै,
     थिरत भव लाखरो हेक थायो।
आप   सब   लाखरो  रुप कर  आहुडै,
     इतै नवलाख रो रुप आयो॥5॥

मेछ  डंड  कड़ड़  नासा ठड़ड़  हड़ड़ मुख,
      ब्रह्म पुड धड़ड़ गज गड़ड़ बागो।
धूत  पत  तनिक  जिम जड़ड़ खंच शूळ धर,
     भूतपत धनक जिम बड़ड़ भागो॥6॥

पाट   तौ   तणां  विरद  किसूं केहर पुणै,
      थाट पत तणां ब्रद सथर थाया।
चाळकै    दैतनूं     मारियो    चंडिका,
    रुप थाहरा नमो चाळराया॥7॥

    *कवि केसरदानजी खिडिया*
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आरती जय मां चालराय

                            आरती
                   *जय मां चालराय*

कुळदेवी मंगळ याद करुं छुं याद करुं त्यां आवजे.
विपदा विडारण धर्म धारण जरा वार न लावजे.
देवी दयाळी मेहर करजे भांगे दुःख तुं भासती .
कुळदेवी मंगळ मात चालराय आजे उतारुं  आरती.... 1
समर जीत देवणी देवी दैत्य तुं संहारती .
धरा तणो पाप वध्यो तुं ही क्षिण उबारती.
धर रुप अनेक देवी तुं तो अळग नामे ओळखावती.
कुळदेवी मंगल मात चालराय आजे उतारुं आरती.......2
लाल आँख्युं हाथे शस्त्र तुं चामुंडा कहावती.
देवी कृपाळी जोर भुजाळी तुं रवराय पुजावती.
मनमूरत सोवन गळे माळा दैत्य मुंडन सुहावती.
कुळदेवी मंगळ मात चालराय आजे उतारुं आरती...3
धर रुप विकराळ देवी तुं तो निज सेवगां संकट उबारजे.
कर जोड़ करे अरदास"दास" भवपार माड़ी उतारजे.
आवजे सेवगां साद तणी वार न लाजे महामति.
कुळदेवी मंगळ मात चालराय आजे उतारुं आरती.....4



प्रिंस देवल "दास" भलूरी बीकानेर
सादर जय माताजी
त्रुटि हेतु क्षमा
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Saturday 25 February 2017

पाक में एक परिवार मेहड़ू भाइयो का एक परिवार

.           पाक में मेहड़ू भाईओ का एक परीवार

जय माताजी,              जय चालाक नेची माँ*

*अभी हमारे मेहड़ू भाई पाक (राठी)  में रह रहे उनकी थोड़ी बहोत जानकारी प्राप्त हुई है,*


.                        *स्व. मालदानजी*
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                         *स्व. रुघदानजी*
                                  ⬇
                          *स्व.पूजदानजी*
                                  ⬇
      *1. पीरदानजी            2. प्रतापदानजी*
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                         *1. पीरदानजी*
                                  ⬇
*1.चनणदान2.मुकेशदान3.समर्थदान4.आंसूदान*
.       *चारो भाइयो का विवाह हो गया है।*
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                         *2. प्रतापदानजी*
                                  ⬇
*1.रूपदान, 2. लाधूदान, 3.     4.*

*प्रतापदानजी के भी चार लड़के है दो के नाम की जानकारी मिली है।*
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Friday 24 February 2017

मेहड़ू

.                          मेहड़ू जाती
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.                      *मेहड़ू(तैनाथी मेहड़ू शाखा चाली)*
                               ⬇
                            *राणो*
                               ⬇
                           *फरशु*
                               ⬇
                            *राम*
                               ⬇
                          *भुवन*
                               ⬇
                          *काशप*
                               ⬇
                     *बळराम (बाणो)*
                               ⬇
                           *रतन*
                               ⬇
''"|'''''''''''''''''''''''|''''''''''''''''''''''''''|''  
 *कुल*          *बोवीर*            *लुणपाल*


*नोध:-*  ढोला मारुना सौ प्रथम चारणी शैलीमां डिंगल दुहा लखनार लुणपाल मेहड़ू  (देगाम) ने आ कृति माटे जूनागढ़ राज्य तरफथी  ५० करोड़नो क्रोड पसाव थयो हतो।

देगाममां बीजा लुंणपाल मेहडुने पण थळा राज्य धांगध्रा तरफथी जागीर मळी हती अने साथो साथ राजा भीमसिंहे पोतानु देहदान-अंगदान करेल हतुं.
लुणपाळ मेहड़ू (पहेला) ने बार बिरदो मल्या हता आ मेहड़ू कुळमां थरपारकरमां धनराज मेहड़ू प्रतापी अने उदार पुरुष हता तेमने बिरदावतो आ दोहो जुओ.

*विशोतर अंजस करे, अंजसे मेहड़ू आज।*
*काळीझर अंजस करे, राज थकी धनराज।।*


आ मेहड़ू शाखने गौरव अपावे तेवा उत्तरोत्तर कर्मी पुरुष आ शाखामा थया अने हाले पण स्यामलदान शंकरदानजी मेहड़ू सुहागी राजस्थान जेवा सुप्रसिद्ध कवि रत्नों आ शाखामां मोजुद छे.
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Thursday 23 February 2017

जाडा मेहड़ू विसे सम्पूर्ण जानकारी

.       *जाडा मेहड़ू विसे सम्पूर्ण जानकारी*
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महेडवा गाव में आकर चापाजी महेडु ने बाड़ी पाई और चापाजी के स्यामदासजी पुत्र हुए और स्यामदासजी के धर्मदासजी, धीरजी, चंद्रावतजी, किसनसिंह और मेहकरणजी पाँच  पुत्र हुए, मेहकरणजी बड़े विद्धवान थे।
कविवर चारणों के महेडु शाखा का राज्यमान्य कवि था। उसका वास्तविक नाम आसकरण था। राजस्थान के कतिपय साहित्य वेताओं ने अपने ग्रंथों में उसका नाम मेंहकरण भी माना है। किंतु उसके वशंधरो ने तथा नवीन अन्वेषरण-अनुसंधान के अनुसार आसकरण नाम ही अधिक सही जान पड़ता है।
वह शरीर से भारी भरकम था। स्थूलकायता के कारण उसका जाडा नाम भी प्रचलित हुआ।
बादसाह अकबर ने जगमाल सिसोदिया सिरोही को सिरोही के राव सुरताण देवड़ा के विरुद्ध भेजा था। जाड्डाजी उस युद्ध में वीरता से  श्री जगमाल का सहयोग देते हुए वि.स. 1640 कार्तिक शुक्ला 11 को युद्ध में काम आ गये।
जाडाजी के चार भाई और थे। इनके वंसज बाड़ी में भी है, और राजोलाखुर्द, झुठा, जोधावास, बोरूदा में भी है।
जाडाजी के पुत्र कल्याणदासजी के पुत्र कर्मचन्दजी को वि.स. १६९७ में आसोज सुदी १० मुकाम अजमेर में राजा श्री रायसिंह राज टोडारायसिंह से जेथल्या गांव छः  घोडा की जागीर मिली। कर्मचन्दजी को गांव भाणपूरा बूंदी नरेश से जागीर में मिला था। इसी वंस में महेडु प्रभुदानजी जाडावत का जन्म हुआ। जो एक बहुत बड़े दानी हुए।
इसी वंश में महेडु कृपारामजी जाड़ावत हुये। शाहपूरा के राजा श्री उम्मेदसिंह ने अपने लघु पुत्र जालिमसिंह को युवराज बनाने के कारण अपने बड़े राजकुमार अदीतसिंह और पौत्र रणसिंह को मारने के लिए कामलिया नामक यवन को भेजा।  कालमिया ने ज्यो ही रणसिंह पर खङग प्रहार करना चाहा, परन्तु उसी समय रणसिंह के पुत्र भीमसिंह के हाथों से वह यवन मारा गया। राजा श्री उम्मेदसिंह का विचार पौत्र प्रपौत्रादि को मारकर जालमसिंह को युवराज बनाने का था। उसी समय महेडु कृपारामजी जाडावत ने जाकर राज सभा में यह दोहा सुनाया-

*​मिण चुण मोटाड़ाह, तै आगे खाभा बहुत।​*
*​चेलक चीतोड़ाह, अब तो छोड़ उम्मेद सी​*

इस दोहे से राजा का ह्रदय परिवर्तन हो गया और शाहपुर का राज कुटुंब मृत्य के मुख में जाने से बच गया।  देवलिया प्रतापगढ़ के शासक महारावत श्री उदेसिंह ने महेडु गुलाबसिंहजी जाडावत की बुद्धिमानी से प्रसन होकर पैर में स्वर्ण आभूषण व सचेई नामक गांव जागीर में दी। इनके सम्बध में यह दोहा प्रसिद्ध है-

*​सुला गोला सोहिता, दारु मांस पुलाब।​*
*​जिमावे जाडाहरो, गायड़ मल्ल गुलाब।।१​*

जाडा महेडु के वंशजो में स्वनाम धन्य महादान नामक वीर एवं श्रगाररस के सिद्धहस्त कवि हुए है। कुलदेवी चालकनेच की रोमकद जाती के छंद में की गई उनकी स्तुति तो बालको के रोग निवारण हेतु मन्त्र स्वरूप मानी गई है। उस स्तुति के प्रारंभ के दोहे इस प्रकार है-

*​चाळराय रै चाळरी, झाली सेवक झब।​*
*​वळीयो दिन टळीयो विघन, आगण फळीयो अब।।​*
*​दे झंझेड़ी रोग दुख, पग बेड़ी खळ पेच।​*
*​तू  बालक तेड़ी तठे, नेड़ी चाळकनेच​*

जोधपुर के विधाप्रेमी महाराजा मानसिंह ने महादान महेडु की प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी पसंद का गांव मांगने की छूट दे दी तब महादान महेडु ने अपना मंतव्य इस दोहे के माध्यम से प्रकट किया-

*​पांच कोस 'पचोटियो', आठ कोस 'आलास'।​*
*​नानेरा म्हारा नकै, समपौ 'सोढावास'।।​*

इसी वंश में आगे ग्राम जेथलिया में श्री साहिबदानजी हुए। रावराजा श्री फतेहसिंहजी उणीयारा ने उनका स विधि सम्मान किया और उनकी प्रशंसा में यह दोहा कहा-

*​साहिबा थारा अंक सह, घड़िया बेह घड़ाव।​*
*​जाणक कंचन में जिके, जड़िया रतन जड़ाव।।​*

श्री गोपसिंहजी जाडावत के ऊपर दुश्मनो ने अचानक हमला बोल दिया।
हमला बोलने वाले दुश्मनो को गोपसिंहजी ने युद्ध में ललकारा और थोड़ी सी देर में ही सभी दुश्मनो को रण खेत में सुला दिया। इनकी बहादुरी देखकर कविवर पृथ्वीसिंहजी महियारिया राजपुरा ने यह दोहे कहे-

*​समत इक्यासी जेठ सूद, बारस अरु रविवार।​*
*​जाडा हर किन्ही जब्बर, बाही खाग बकार।। १​*
*​आडा शत्रु आविया, कर गाढ़ा हद कोप।​*
*​जाडा हर किन्ही जब्बर, गाढ़ा दिल से गोप।। २​*
*​जाडा महेडु जंग में, रण गाढा पग रोप।​*
*​खाळ बहाया खून रा, घणा रंग तोय गोप।।३​*

वर्तमान समय में मऊ ठाकुर साहब श्री पीरदानजी जाडावत ने वि. स. १९९६ के भीषण दूर्भीक्ष के समय अपने एक हजार याचको के लिए बारह महीनों तक भोजन व्यवस्था की । इनके बारे में यह दोहे प्रशिद्ध है-

*​तरवर गंगा तीर, ताकव घुणी तापियो।​*
*​ते पायो तकदीर, पीर महड़वा पाटवी।। १​*
*​पीरा कहवे पात, इल ऊपर रहिज्यो अमर।​*
*​मग जण रो मां बाप, कलजुग में दूजो करण।।२​*

इसी वंस में शकरदानजी का जन्म वि. स. १९८६ मिती भादवा ७ को हुआ।
इनके पिता श्री भेरूदानजी थे।
पिता श्री का स्वर्गवास १९९८ में मिति आसोज सुदी ८ को हो गया। उस समय इनकी उम्र १२ वर्ष की थी।

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जाडा का पूर्वज मेलग मेहडु था। मैंलग मेवाड़ राज्य के बाड़ी ग्राम का निवासी था। मेलग के वंश में लूणपाल ख्यातिलब्ध व्यक्ति हुआ। 

जाड़ा मेंहडु जगमाल का आश्चित तथा कृपापात्र था।

जाडा मेंहडु की रचनाओं तथा ख्यातो में प्राप्त अन्य प्रसंगों से भी यह पाया जाता है कि जाडा मेहडु दत्ताणी के चर्चित युद्ध (वि. स्. १६४०) के बाद तक भी जीवित था। उपर्युक्त युद्ध घटना के पश्चात् नवाब खानखाना, रहीम राव केशवदास, भीमोत राठौड़, मानसिंह बागडिया चौहान तथा शार्दूल पवार आदि पर रचित कवि का उपलब्ध काव्य भी हमारे कथन की पुष्टि करता है। शार्दूल पवार और भोपत राठौड़ आदि के मध्य मार्गशीर्ष शुक्ला १५ स्. १६६३ वि. में युद्ध हुआ था। जिसका जाडा ने सविस्तार वर्णन किया है।

महाराज रायसिंह के जैसलमेर में विवाह और उस अवसर पर दान देने का गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा डॉ. सी. कुन्हनराजा तथा तत्सामयिक कवि गोपा सिढायच चारण के गीत इत्यादि से भी प्रमाणित है। अतः इन उल्लेखों के साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि रायसिंह जैसे दातार का जहां विवाह होगा, वहां कवि नहीं आये होंगे और उन्हें दान न दिया होगा, यह कैसे माना जा सकता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि कवि जाडा मेहड़ू सं. १६४९ में जीवित था और उसने बीकानेर नरेश से एक हाथी पाया था।

जाडा के तीन पुत्र और एक पुत्री थे। जिनके कल्याणदास, रूपसी, मोहनदास तथा कीका (कीकावती) नाम थे। 

कीकावती का विवाह ख्यातिलब्ध बारहठ लक्खा नांदणोत के साथ हुआ था। प्रसिद्ध महाकाव्य 'अवतार चरित्र' का प्रणोता, महाराणा राजसिंह मेवाड़ का काव्य गुरु तथा महाराजा मानसिंह जोधपुर का श्रद्धाभाजन नरहसिंहदास बारहठ और उसका अनुज गिरधरदास जाडा के दोहिते थे। 

जाडा के पूर्व निर्देशित तीनों पुत्रों में जेष्ठ कल्याणदास अपने समवर्ती चारण कवियों में अति सम्मानित, राज्यसभा-समितियों में प्रतिष्ठत तथा श्रेण्य कवि था। कल्याणदास को जोधपुर के महाराजा गजसिंह राठौड़ ने १६२३ तथा १६६४ वि. में क्रमश: एक लाख पसाव व एक हाथी तथा एक लाख पसाव प्रदान किया था। अब तक की अनुसंधान-अन्वेषण में कल्याणदास के राजस्थान के शासकों तथा योद्धाओं पर सर्जित कोई १२ वीरगीत ८ छप्पय और बूंदी राज्य के परम प्रतापी शासक राव रतन हाडा के युद्धों पर रचित 'राव रतन हाडा री वेली' खण्ड काव्य प्राप्त है। राव रतन हाडा री वेली जहां कोटा-बूंदी के हाडा शासकों के इतिहास के लिए महत्व की कृति है। वहां राजस्थानी वीर काव्य परंपरा की भी पाक्तीय रचना है। राजस्थानी के वेलिया गीत छंद में रचित यह डिंगल की उत्कृष्ट रचना है। रूपसी और मोहनदास का कविरूप में कहीं कोई परिचय अधावधि अनुपलब्ध है। मोहनदास के पुत्र बल्लू मेंहडु के गीत, कवित्त, दोहे आदि स्फुट छंद गुटको में यंत्रतंत्र मिलते हैं। वह बूंदी के रावराजा शत्रुशाल, महाराजा अजीतसिंह जोधपुर महाराजा सवाई जयसिंह कछवाहा आदि का समकालीन था। रावराजा शत्रुशाल ने उसे बूंदी का ठीकरिया गांव प्रदान किया था।

कवि का काव्य सर्जनकाल वि. स्. १६२४ - १६७२ वि. तक स्थिर किया जा सकता है। तदनुपरात कवि रचित काव्य उपलब्ध नहीं हुआ है। इससे प्राप्त आधारों पर यह अनुमान किया जा सकता है कि स्. १६७१ - ७२ वि.  के पश्चात ही कवि का किसी समय निधन हो गया होगा?
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Friday 17 February 2017

लालोजी मेहड़ू


.                        *लालोजी मेहडू*

लालोजी मेहडू शाखा में उत्पन्न हुए थे। उनके पिताजी सतोजी मेहड़ू राव बीकाजी के साथ जोधपुर से आए थे। बीकानेर रियासत में उन्हें खारी चारणान सहित दो गांवों की जागीर प्राप्त थी। कोलायत तहसील स्थित खारी चारणान में उनके वंशज अब भी निवास करते हैं। लालोजी मेहडु बीकानेर रियासत के प्रथम कविराज एवं अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। बीकानेर राव लूणकरण के वक्त एक बार लालोजी जैसलमेर गए तो जैसलमेर के तत्कालीन रावळ देवीदास ने नवस्थापित बीकानेर रियासत की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि यदि बीकानेर के राठौड़ एक बार मेरी सीमा में आकर दिखाएं तो वह जमीन मैं ब्राह्मणों को दान कर दूंगा। लालोजी मेहडू को यह गर्वोक्ति अखर गई और उन्होंने जैसलमेर रावळ द्वारा दिए गए पुरस्कारों इत्यादि को ठुकरा कर बीकानेर की ओर प्रस्थान किया। जब वे राव लूणकरण के दरबार में गए तो राव ने उन्हें कुशल क्षेम पूछते हुए खिन्नता एवं उदासी का कारण पूछा। प्रत्युत्तर में लालोंजी ने सम्पूर्ण घटनाक्रम एवं वार्तालाप का विस्तृत ब्यौरा दिया। जिसके परिणाम स्वरूप राव लूणकरण ने अपनी 15,000 की सेना के साथ संवत 1571 ई. में जैसलमेर पर आक्रमण किया एवं रावळ देवीदास को गिरफ्तार कर लिया।  वस्तुत: यह सैनिक अभियान लालोजी मेहडू और बीकानेर रियासत के अपमान का प्रतिशोध हेतु ही था। बंदी अवस्था में जैसलमेर रावल से मिलकर लालोजी ने भूमि ब्रह्मणों को दान देने की बात पर रावल ने शर्मिंदगी महसूस करते हुए लालोजी से संकट के समाधान का अनुरोध किया। लालोजी ने जैसलमेर की भाटी कन्याओं को बीकानेर के राठोड़ों से विवाह करवा कर तथा एक लाख रुपयो की जुर्माना राशि को दहेज स्वरूप बीकानेर के राठौड़ को दिला कर विवाद का पटाक्षेम किया। इससे यह तथ्य उजागर होता है कि एक स्वाभिमानी चारण की बात को रियासतों में कितनी गंभीरता से लिया जाता था और लालोजी मेहड़ू की बीकानेर रियासत में कितनी प्रतिष्ठा थी। उपर्युक्त घटनाक्रम का विवरण 'दयालदास सिढायच री ख्यात' एवं ख्यात देश दर्पण' में उपलब्ध होता है।  लालोजी मेहड़ू द्वारा इस भाव का रचित यह गीत भी बहुत प्रचलित है:-

*राठौड़ा वाद न कीजै रावळ,*
*देखो कासूं आयी दाय।*
*सांगै भला पाविया साकुर,*
*जोधहरै जेसाणे जाय।।*
*देद कुबधचौ भेद दाखियौ,*
*झूठो कियौ कविसूं झौड़।*
*मेहड़ू तणे बचन रै माथै,*
*रातै गढ़ आयौ राठौड़।।*
*खेह हुई गोरहर गढ़ खैगा,*
*बीदहरै वरदायी।*
*जैसलमेर तणे सिर जादा,*
*लालै चाल लगायी।*
*बीदाहरै तणा जस ईण विध,*
*गुणीयम मैडू गायौ।*
*समहर कियो राव छळ सांगै,*
*ऐम फतै कर आयौ।।*




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​उपरोक्त माहिती:- चारण समाज के गौरव पुस्तक से प्राप्त हुई।​

    ​           लेखक:- जगदीश रतनु 'दासौड़ी'​

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Thursday 16 February 2017

सोहागी गाँव का इतिहास​

.               ​ *सोहागी गाँव का इतिहास​*
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*​गाँव- सोहागी, तहसील- सेड़वा, जिला- बाड़मेर, राजस्थान​* ______________________________________
विक्रमी सवंत 1580 में मेंहडू शाखा के चारण भादाजी मेंहडू को गंगाजी सोढा द्वारा सोहागी गाँव भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ। सोहागी का तत्कालीन नाम मेंहडु वास था।
भादाजी मेहड़ू की सुपुत्री सोहागीबाई का विवाह महिया शाखा के चारण से हुआ। सुहागीबाई के पुत्र का नाम मांडणजी महिया था। माडणजी महिया से सोढा राजपूतों ने घोड़ो की माँग की माडणजी ने यह माँग अस्वीकार कर दी। तत्पश्चात सोढा राजपूत घोड़ों को षड्यंत्र पूर्वक चोरी करके ले गये।
जब उक्त घटना घटी तब माडणजी सामाजिक कार्य से अन्य गांव गए हुए थे इस घटना की जानकारी उन्हें संदेशवाहक द्वारा भेजी गई। माडणजी घर आकर जब विश्वस्त हुए कि घोड़े बाखासर के सोढा राजपूत ही ले गए हैं तो बाखासर गांव जाकर गले में कटार पहन ली। ( चारणों का सत्याग्रह का एक प्रकार  जिसमें स्वयं ही अपने गले में कटार को प्रवेशित करवाया जाता है।) माडणजी इसी अवस्था में सोढा राजपूतों की कोटड़ी पहुंच गये।
यह दृश्य देखकर सोढा राजपूत अत्यंत भयभीत हो गये इसकी सूचना माडणजी के ननिहाल पक्ष (मेंहडु चारण) को दी। माडणजी के ननिहाल पक्ष के लोग और वंशज जाकर माडणजी का पार्थिव शरीर ले आये।
यह दुःखद समाचार माईके आये हुए सोहागीबाई को सुनाया गया। सोहागीबाई के कथनानुसार माडणजी की मृत देह को वर्तमान सोहागी गांव की पश्चिम दिशा में जहां से बाखासर दृष्टिगोचर होता है, धोरे पर (धोरा= टीला, टीबा) चित्ता पर रखा गया। अपने पुत्र माडणजी के मस्तिष्क को गोद में लेकर सोहागीबाई विक्रमी सवंत 1585 में अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को सती हो गयी।
सोहागीबाई ने बाखासर के सोढा राजपूतों को श्राप दिया कि आपके राज का पतन होगा। माताजी के वचन सत्य सिद्ध हुए और सोढो के भाणेज चौहान राजपूतों ने आक्रमण कर के सोढो से जागीरी छीन ली।
माताजी ने पीहर पक्ष के लोगों को आज्ञा दी थी कि यह गांव मेरे नाम से बसाने पर आप सभी सुखमय रहेंगे। माताजी की कृपा से सोहागी के चारण आज भी सुखी और साधन सम्पन्न है।
माताजी जिस स्थान पर सती हुई उस स्थान पर वर्तमान में थान है। जहां आज भी माताजी की पूजा होती है।

.                      *प्राचीन दोहा​*

​सोढे भादा नै सम्पयो,जस कारण घण जाण।​
​दत सुहागी सासण दियो,रीझै गांगे राण।।11​

​संवत पनरै सौ अस्सी,सातम नै भृगु सार।​
​सोढै भादा नै सम्पयो, दत गांगै दातार।।​

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*आई श्री सुहागीआई झमर जळी सती हुए इसकी ऐतिहासिक सम्पूर्ण माहिती इस गाँव के प्रतिष्ठ चारण कवि श्री शंकरदानजी महेडु तथा इनके पुत्र कवि श्री सामलदानजी महेडु के जो भी विद्वान कवि है उनके गाँव के अन्य वडील महेडु शाखा के चारणों की हाजरी में दी हुई है।*
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लेखन भंवरदान मेहङू साता की प्रेरणा से दिनेशदानजी आसिया बंधली नाडा(भलूरी)
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Monday 13 February 2017

जाडाजी मेंहडु (मेहकरणजी मेंहडु)

                            जाडा महेडु
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सम्राट पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) की पराज्य के पश्चात राजस्थान केंद्रीय शक्ति के रूप में मेवाड़ के सीसोदिया (गुहिलवंशीय) राज्य का उदय हुआ। मेवाड़ राजवंश वैसे भी राजस्थान के राजवंशो में सब से प्राचीन तथा स्थिर शासक वंश रहा। मुसलमानों के भारत में  श्रागमन के बाद हिन्दू समाज की संस्कृति स्वाधीनता तथा धर्म-भावना की रक्षा का केंद्र बिन्दु मेवाड़ ही समभ्क्ता जाने लगा। मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को 'चित्तउर है हिन्दुन की माता' तथा मेवाड़ के महाराणाओ को 'हिन्दुवा-सूर्य' के श्रद्धा संबंधित सम्मान से स्मरण किया जाने लगा। महाराणा संग्रामसिंह प्रथम के शासन काल तक मेवाड़ का वह गोरव श्रक्षुरणा बना रहा। राजस्थान के तत्कालीन मेवाता, जोधपुर, सिरोही, बूंदी, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, रामपुरा, ईडर आदि के शासक महाराणा की कृपा-दृष्टि तथा सहायता के अभिलाषी बने रहे और महाराणा के आव्हान पर मेवाड़ के ध्वज के नीचे सम्मिलित होकर विदेशी आक्रांता यवनो से लड़के रहे। महाराणा सग्रामसिंह के निधन के पश्चात राजस्थान तथा मेवाड़ की राजनीतिक परिस्थितियों मैं द्रुतगति से परिवर्तन आया। मेवाड़ के समीपस्थ राठोड़ों के जोधपुर राजवंश में राव मालदेव के रूप में एक प्रबल सक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। राव मालदेव ने मेड़ता, बीकानेर, अजमेर, जालौर, बाड़मेर, नागौर आदि राज्यों को विजित कर अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया तथा एक नवीन राठौर शक्ति के रूप में राजस्थान में प्रकट हुआ। किंन्तु महाराणा संग्रामसिंह के उत्तराधिकारी महाराणा रतनसिंह, महाराणा विक्रमादित्य, वरणवीर (दासी पुत्र) के समय पारस्परिक विग्रह के कारण मेवाड़ की जो दुर्बल स्थिति हुई वही स्थिति राव मालदेव के देहावसान के बाद आपसी कलह के कारण जोधपुर राजवंश की भी हुई।राजस्थान के उपर्युक्त दोनों राज्यों की तरह ही तब कछवाहों के आमेंर राज्य में भी आन्तरिक विरोध के अंकुर पनप रहे थे। दिल्ली में तब मुगल सम्राट अकबर महान का  वर्चस् वर्द्धमान था। उसने शेरशाह सूरी के प्रबल सेनानायक हाजीखां पठान मेवात को पराजित करने के लिए मजनू खां काकशाल को नारनोल का हाकिम बना कर भेजा। हाजीखां ने मजनू खां पर यकायक आक्रमण कर उसे घेर लिया। इस आकस्मिक आक्रमण से मजनू खां की शोचनीय स्थिति हो गई। उस संकट-काल में आमेंर के राजा भारमल्ल कछवाहा ने मजनू खां की सहायता कर दोनों पक्षों में संधि की व्यवस्था की। यद्दपि राजा भारमल तब हाजी खां पठान के साथ था, पर वह दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। उसके प्रयत्न से मजनू खां की प्रतिष्ठा बच गई तथा वह सकुशल दिल्ली लौट गया। मजनू खां ने दिल्ली लौट कर बादशाह अकबर से राजा भारमल्ल के सद्व्यवहार, कुलीनता, उदारता तथा विवेकशीलता आदि गुणों की सराहना की। तब बादशाह ने राजा भारमल्ल से मिलने की आकांक्षा प्रकट की, फलस्वरुप मुगलों और कछवाहों में राजनैतिक संपर्क स्थापित हुआ। इस प्रकार मेवाड़ एवं जोधपुर की भाति ही तथा आगे चलकर इन दोनों राज्यो से भी अधिक राजनैतिक प्रभाव-संपन्न आमेर राज्य बन गया।

मुगल-कछवाहों के राजनैतिक सम्बन्ध का परिणाम यह हुआ कि राजस्थान में मेवाड़ को छोड़कर अन्य शासक भी शाही संरक्षाता तथा अधीनता स्वीकार करने लगे। मेवाड़ राजवंश जगमाल (जहाजपुर) तथा शक्तिसिंह (बेगू, भीडर वालों के पूर्वज) शाही शेवा में चले गए। अतः राजस्थान की राजनीतिक में मुगलन्ता का पुरजोर प्रभाव बढ़ने लगा। मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह तथा कारण विशेषो से खिण राजा चंद्रसेन राठौर, रावसुरताण देवड़ा सिरोही, ठाकुरसिंह जैतासिंहोत भटनेर, महाराजा रायसिंह बीकानेर के अनुज अमरसिंह, तिलोकदास अचलदास कछवाहा, दुदा हाडा आदि मुगल-सल्लनत का सशस्त्र विरोध करते रहे।

मुगल दरबार से राजस्थान के राज्यों के संपर्क जुड़ जाने के कारण राजस्थान की राजनैतिक परिस्थिति तथा शासन-व्यवस्था में जहां स्थिरता आई वहां आंन्तरिक विरोध तथा राज्यों के पारस्परिक युद्धों में भी कमी आयी। राजस्थान के शासकों का ध्यान अपने राज्यो की गतिविधियों के स्थान पर मुगल-सम्राज्य की हलचलों से जुड़ गया। यहां के शासकों की राजस्थान से दूर देश के दूसरे भागों में नियुक्ति के कारण तथा मुगल-दरबार से संपर्क के कारण स्थापत्य कला, साहित्य, इतिहास, भाषा तथा संस्कृति पर भी मुगलों का अपरिहार्य प्रभाव पड़ा। हिंदू-मुस्लिम अथवा राजपूत-मुगल संपर्क साहचर्य के फलस्वरुप दोनों संस्कृतियां प्रभावित हुई। नवाब अब्दुर्रहीमखानखाना जेसे मुसलमान हिंदी (वृजभाषा) में नीति काव्य रचने लगे और रायांराय मनोहरदास शेखावत जैसे योद्धा फारसी में उत्तम काव्य सर्जन करने लगे।
राजस्थान में राजस्थानी भाषा के साथ-साथ अरबी तथा फारसी शब्दावली का भी प्रयोग होने लगा। और शाही दरबार मैं हिंदी व राजस्थानी काव्य तथा काव्यकारों की सराहना की जाने लगी। 

मुगल-राजपूत संपर्क के कारण मेवाड़ का राजनीतिक प्रभुत्व प्रभाव तथा वर्चस्व सीमित हो गया। महाराणा उदयसिंह, महाराणा प्रतापसिंह, तथा महाराणा अमरसिंह हिंदू समाज के वंदनीय आदर्श तो बने रहे पर सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक वैभवता की दृष्टि से मेवाड़ उत्तरोतर खोखला बनता गया।

राजस्थान के कवि गण पहले जहां यहां के वीर शासकों, युद्धप्रिय, योद्धाओं, जोहर की ज्वालाओं में स्नान कर मृत्यु का वरण करने वाली वीरांगनाओं का अपने काव्य में गान करते थे वहां शाही सेवा-रत हिंदू योद्धाओ प्रतापी शाहशाहों एव शाहजादों तथा उदार मुस्लिम सेनानायकों का यश-गान भी अपने काव्य में बखानने लगे। लोकमानस में भी बादशाह के लिए 'दिल्लीश्वरो व परमेश्वरो' द्वारा श्रद्धा व्यक्त की जाने लगी।

राजस्थान में वीररसात्मक साहित्य चारण, राव, मोतीसर, राजपूत, ब्राह्मण, जैन। यतीयों आदि कवियों द्वारा रचित उपलब्ध होता है। इन में भी चारण कवियों द्वारा प्रणीत साहित्य अधिक मिलता है। चारण जाति क्षत्रिय समाज की समादत आश्रित जाती रही है। शासक वर्ग के आश्चर्य, सहचर्य एवं वीर तथा उदार वृत्ति का जयगान चारण कवियों के काव्य का प्रमुख स्वर रहा है। अतएव आश्रयदाता की प्रकृति, रुचि, प्रवृत्ति तथा वातावरण का प्रभाव अश्रित की वाणी में व्यक्त होना स्वभाविक है। श्री रामचंद्र मर्यादावादी थे। इसलिए महात्मा तुलसीदास ने रामचरित में उनके मर्यादा पुरुष का वर्णन किया है। श्री कृष्ण रास कीड़ा-प्रेमी थे; अतः कृष्ण-भक्त कवि सूरदास ने उनकी रास लीलाओं गोपिकाओं के साथ विहार आंदि कीड़ाओ को अपना वण्र्य  विषय बनाया।

अकबरकालीन चारण कवियों में राजस्थान में जाडा मेहडु, दुरसा आढा, शंकर बारहठ, माला सादु, लक्खा बारहठ, सूरा टापरिया, दूदा अाशिया आदि कवियों का उल्लेखनीय स्थान रहा है। ये सभी कवि राजस्थान के राजाओं के आश्चित, सम्मानित एवं आदरणीय कवि रहे हैं। *यहां हम इनमें से जाडा महेडु के विषय में चर्चा कर रहे हैं।*

कविवर जाडा महेडु चारणों के महेडु शाखा का राज्यमान्य कवि था। उसका वास्तविक नाम आसकरण था। राजस्थान के कतिपय साहित्य वेताओं ने अपने ग्रंथों में उसका नाम मेंहकरण भी माना है। किंतु उसके वशंधरो ने तथा नवीन अन्वेषरण-अनुसंधान के अनुसार आसकरण नाम ही अधिक सही जान पड़ता है।
वह शरीर से भारी भरकम था। स्थूलकायता के कारण उसका जाड़ा नाम प्रचलित हुआ। जाडा के पूर्वजों का आदि निवास स्थान मेहड़वा ग्राम था। यह ग्राम मारवाड़ के पोकरण कस्बे से तीन कोस दक्षिण में उजला, माड़वो तथा लालपुरा के पास अवस्थित है और उसमें मेहडु चारणो की आबादी है। दीर्धकाल तक मेहड़वा ग्राम में निवास करने के कारण इस शाखा का मेंहडु नाम प्रचलित हुआ। राजस्थान में मेहडुओ की ही भांति खराड़ी गांव में निवास के कारण चारणों की एक दूसरी शाखा का खिड़िया नामकरण भी प्रचलित है। चारण समाज के अतिरिक्त राजपूतों, ब्राह्मणों वैश्यो तथा जाटों में भी प्रांतों, नगरों, कस्बों एवं ग्रामों के नामाधार पर अनेक जातीय शाखाओं के नाम पाये जाते हैं। मारवाड़ के राठौड़ो में दूदावत शाखा के राठौड़ मेड़ता के शासक होने के कारण मेड़तिया उपटक से सम्बोधित किए जाते हैं। शेखावाटी के खण्डेला स्थान में लंबे समय तक आवास के कारण वैश्यों तथा ब्राह्मणों की शाखाएं खण्डेलवाल वैश्य तथा खण्डेलवाल ब्राह्मण कहलाती है। इसी प्रकार मेहडवा ग्राम के नाम से चारणो की मेहडु शाखा प्रसिद्ध हुई हैं।

मेहडु चारण, चारणों की एक सौ बीस शाखाओं में है।  महेडु चारण प्रारंभ में पारकरा सोढा क्षत्रियों के प्रतोतिपात्र थे। प्रतोतिपात्र अपने संरक्षण क्षत्रिय वंश के वहां पुत्रजन्म, विवाह तथा इसी तरह के अन्य मांगलिक अवसरों पर त्याग पुरस्कार आदि साधिकार प्राप्त करने वाले चारणों को कहते हैं। प्रत्येक क्षत्रिय वंश के कोई न कोई शाखा के चारण प्रतोलीपात्र होते थे। जाडा के समयकालीन चांगा मेहडु, तथा किसना महेडु भी अच्छे कवि थे।
जाडा का पूर्वज मेलग मेहडु था। मैंलग मेवाड़ राज्य के बाड़ी ग्राम का निवासी था। मेलग के वंश ने लूणपाल ख्यातिलब्ध व्यक्ति हुआ। महाराणा मोकल के समय में मेवाड़ में ब्राह्मणों और चारणों में प्रबंध प्रतिदंध्दिता चलती थी। वैसे भी समान वृति तथा समानकर्मा व्यक्तियों अथवा जातियों में परस्पर एक दूसरे के हित टकराव के कारण स्वाभाविकतया अमित्रता ही रहा करती हैं। ब्राह्मण और चारण दोनों ही समाज, क्षत्रियों के आश्रित पूजनीय तथा दान प्राप्त करने वाले रहे हैं। महाराणा मोकल प्रतिदिन द्विजो को एक सवत्सा सर्वण-धेनु दान करते थे जिसे चित्तौड़ के ब्राह्मण आपस में हिस्से कर प्रतिदिन बांट लेते थे। सामान व्रती-ईर्ष्या के कारण ब्राह्मणों ने चारण समुदाय के प्रति महाराणा के मन में यह र्मांति उत्पन्न कर दी कि चारण तो मध्यम जाति के हैं और भैंसा के मांस का भक्षण करते हैं। इससे महाराणा के मन में चारणों के प्रति गघृणा उत्पन्न हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि महाराणा ने चारणों से मिलना, त्याग देना सम्मानित करना आदि बन्द कर दिया। लूणपाल स्वयं विदग्धमति, साहसी एवं युक्ति कुशल व्यक्ति था। उसने येनकेन प्रकारेणा महाराणा मोकल के दरबार में प्रवेश कर उनकी प्रशंसा का काव्य सुनाया। किंतु महाराणा के चित में चारणों के प्रति अशुचिता का भाव ज्यों का त्यों बना रहा। लूणपाल के दरबार से उठ जाने के बाद उन्होंने स्वयं स्नान किया, पोशाक बदली तथा जिस बिछायत पर लूणपाल बैठा था उसे धुलवाया। पीछे से यो परिष्कार किये जाने का समाचार सुनकर लूणपाल बड़ा क्षुब्ध तथा विस्मित हुआ। तब उसके प्रतिक्रिया स्वरूप चित्तौड़ के बाजार में सात बार स्नान कर ब्राह्मणों को सात बार ही स्वर्ण-दान किया। यह बात जब महाराणा तक पहुंची तब उन्होंने लूणपाल को बुलावा कर यो स्नान करने का रहस्य जानना चाहा। इस पर लूणपाल ने डिंगल भाषा में निम्नलिखित गीत रचकर सुनाया--

*चौसठ मोहरि तणो कर चौपग,*
*बछड़ा सहत बंधारणावान।*
*दिन दिन धणी चित्रगढ़ दरगाह,*
*दिये नीतू विप्रा नू दान।।*
*ले दुज जात धरां मन हुळसै,*
*बाँट करै गहरागर बट।*
*मासौ रती बंट बंट प्रमाणे,*
*छीन छीन लेजावत छंट।।*
*लावी सुणे बरणा री लुणो,*
*चढ़ आयो महेडु चितोड़।*
*कर दरबार मिले प्रीती कम,*
*मंडे स्नान हिन्दवो मोड़।।*
*महेडु सात स्नान मांडिया,*
*दान सात लीधा दूज दौड़।*
*दुज भरमाया राण फाटो दिल,*
*छत्रपत दियो काव्या मिल छोड़।।*
*सुवछा गाय दिया दिल हरखे,*
*खात करें बाटे अर खाय।*
*रिव हिन्दवाण समापो मारण,*
*गढ़पत दिये जीवती गाय।।*
*सरबत नही राण दिल सके,*
*व्रन स्त्रब तणो वधारण-वान।*
*इतरी करै लूणकन आयो,*
*मोकल कना लियण सनमांन।।*

उल्लेखनीय है कि तदनन्तर मेवाड़ में पुनः चारणों की प्रतिष्ठा तथा सम्मान होने लगा।

चारणों की मेहडु शाखा तथा जाडा के पूर्वजों के सम्बन्ध में उपर्युक्त बिखरे हुए संदर्भों के अतिरिक्त कोई साधार प्रमाण उपलब्ध नहीं है। और न जाडा की माता-पिता, भाई-बहन, बाल्यकाल, शिक्ष-दीक्षा तथा काव्य-गुरु आदि के बाबत निश्चित संकेत सूत्र   अधावधि कही प्राप्त है। किंतु यह निर्विवाद है कि वह महाराणा उदयसिंह के पुत्र जगमाल राणावत जहाजपुर का कृपापात्र, दरबारी तथा आश्चित कवि था।
महाराणा उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के बाद जगमाल को मेवाड़ का शासक बनाने की इच्छा से  वि. स. १६२८ मैं उसे युवराज पद प्रदान किया था। जगमाल उदयसिंह के निधन पर मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा;  पर मेवाड़ के प्रभावशाली उमरावो को यह 'अधिकार-नाश' मान्य नहीं हुआ। उन्होंने जगमाल को पदच्युत कर मेवाड़ के वास्तविक हकदार तथा उदयसिंह के वैधानिक उत्तराधिकारी महाराणा प्रतापसिंह को सिहासनारुढ किया। इस परिवर्तन व्यवस्था से रूष्ट होकर जगमाल सपरिग्रह मेवाड़ से प्रस्थान कर जहाजपुर चला गया। जहाजपुर तब शाही अधिकार क्षेत्र में अजमेर प्रान्त के अन्तर्गत था। वंशभास्कर के टीकाकार कृष्णसिंह सोदा के मतानुसार जगमाल मेवाड़ से जहाजपुर जाते समय जाडा को अपने साथ ले गया। तदन्तर वह अजमेर की शाही अधिकारी के पास गया और जहाजपुर का परगना ठेके पर प्राप्त कर जाड़ा को दिल्ली भेजा। जाडा ने दिल्ली जाकर अपनी योग्यता, काव्यशक्ति, तथा नीति कुशलता से नवाज अब्दुलरहीम खानखाना को प्रश्नन कर उसके द्वारा बादशाह अकबर से जगमाल के लिए जहाजपुर वतन के रुप में प्राप्त किया। किंतु कविराज श्यामलदास ने जगमाल को जहाजपुर मिलने के प्रसंग में जाडा के सहयोग का उल्लेख नहीं किया है यही तथ्य रायबहादुर गोरीशकर हीराचंद ओभ्क्ता ने अपने उदयपुर राज्य का इतिहास में दोहराया है। राजस्थान के इतिहास के ख्याति प्राप्त अध्येता मुंहता नैणसी के अनुसार 'जगमाल वडो काम रो माणस थो।' ' ' ' ' ' ' ' ' 'सिसोदियो जगमाल, उदेसिंघ राणा रो बेटो दरगाह गयो छे। सु ओ राव मानसिंघ री बेटी परणियों हुतो, सु उठारो भोमियो छे। इण मुनसब में सिरोही रो आध मांगिओ। दीवाण-बगसीये पातसाह अकबर सूं मांलम कीवी। तरै पातसाह जी कहो - राण रो बेटो छे, लायक छे दो। तरै तालिको लिख दियो''।  इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि जगमाल वंश, परिवार, एवं सम्बन्ध सभी प्रकार से राजस्थान के तत्कालीन जोधपुर, आमेर, बीकानेर, सिरोही, जैसलमेर आदि के शासकों के समतुल्य सामाजिक प्रतिष्ठा एवं राजनैतिक गौरव प्राप्त व्यक्ति था। वह एतदैशीय राजस्थान के स्वतंत्र राज्य मेवाड़ के शासक का पुत्र तथा महाराणा प्रतापसिंह जैसे स्वाभिमानी वीर शासक का अनुज था। मेवाड़ और दिल्ली में बादशाह बाबर और महाराणा संग्रामसिंह (प्रथम) के समय से ही परस्पर प्रतिदन्ध्दिता चली आ रही थी। चौहान सम्राट पृथ्वीराज तृतीय के पश्चात मेवाड का गुहिलवंश हिंदू समाज का एकमात्र प्रबल संरक्षक रहा। इस प्रकार मुगल सम्राट अकबर की दृष्टि में मेवाड़ का राजनैतिक गोरव, गोहिलवंश की कीर्ति तथा हिन्दू समाज के नेता का सम्मान भी मेवाड़ विजय के लिए प्रेरित करता रहा हो तो अस्वाभाविक नहीं हैं। वह राजस्थान में घटित तब की राजनैतिक घटनाओं का जागरुक पर्यवेक्षक भी था। अतः महाराणा प्रतापसिंह और जगमाल के पारस्परिक विरोध से उसे प्रसंन्ता ही हुई होगी। महाराणा उदयसिंह के जीवन काल में शक्तिसिंह जगमाल से पूर्व एक बार अपने पिता पर कुपित होकर शाही सेवा में गया था। जगमाल की मृत्यु के बाद उसका सहोदर सागर जब मुगल सेवा मैं गया तब बादशाह जहांगीर ने उसे राणा की पदवी मेवाड़ के चित्तौड़, जीरण, फुलिया, सादड़ी, बेगू, बागोर, कपासन, तथा नागौर, मेड़ता आदि परगने देकर महाराणा प्रतापसिंह के विरूध्द मेवाड़ के शासक रूप में प्रतिष्ठित किया था। इससे यह माना जा सकता है कि बादशाह अकबर और जहांगीर दोनों पिता पुत्र मेवाड़ विजय के लिए अत्यधिक लालायिक थे।

बादशाह अकबर ने मेवाड़ की ऐतिहासिक राजधानी तथा प्रसिद्ध दुर्ग चित्तौड़ तृतीय साके के समय ही वि. स. १६२४ में अधिकार कर लिया था। उसके पश्चात उसने वि.स्. १६२५ में मेवाड़ के पक्षधर बूंदी के राव सुरजन के विरुध्द रणथंभोर दुर्ग पर घेरा डाला। राव सुरजन शाही सेना से सामना करने का साहस न कर सका। तब उसने राजा भगवतदास कछवाहा की मध्यस्थाता से रणथभौर दुर्ग बादशाह के सुपुर्द कर शाही अधीनता अंगीकार करली। बादशाह ने उसे चरणाद्रि तथा बनारस के परगने दिए। उसके निधन के बाद उसके छोटे पुत्र भोज को बूंदी की सनद प्रदान कर हाडा राजवंश को भी मेवाड़ के पक्ष में विलग कर दिया।

वैसे नैणसी री ख्यात के अनुसार जगमाल योग्य, वीर तथा प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति तो था ही पर बादशाह ने मेवाड़ के आन्तरिक विरोध से लाभान्वित होने की आकांक्षा से भी महाराणा प्रतापसिंह से रुष्ट जगमाल के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर जहाजपुर तथा तदनतर सिरोही राज्य प्रदान किया हो तो अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती।

जाड़ा मेंहडु जगमाल का आश्चित तथा कृपापात्र था। जब जगमाल अजमेर, दिल्ली शाही दरबार में गया तब जगमाल के अन्य सरदारों, सहयोगियों की भांती जाडा भी उसके साथ गया।तब जगमाल नवाब अब्दुर्रहीमखानखाना महावतखां आदि बड़े शाही अमीरों से मिला होगा। कारण खानखाना तब तक अपनी उदार-ह्रदयता तथा महावतखां राजपूतों के वचन-निर्वाह तथा वीरतादि गुणों के प्रशसक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। अतः जगमाल के माध्यम से जाडा मेंहडु का नवाब खान-खाना से संपर्क बनना संभव माना जा सकता है। कृष्णसिंह सोदा का यह कथन कि 'नवाब रहीम की प्रसन्नता प्राप्त कर जाडा ने जहाजपुर का परगना जगमाल को दिलाया तथा स्वयं ने अपने निर्वाह के लिए सिरसिया ग्राम लिया' यो भी तथ्य संगत नहीं है कि जगमाल को संवत् १६२९-३० वि. में जहाजपुर मिला और उसने संवत् १६३६ वि. में जाडा को सिरसिया ग्राम 'सांसण' में दिया। अतः श्रीकृष्णसिंह सोदा के कथन में समसामयिक तथ्यों के आधार पर वजन प्रतीत नहीं होता।
बादशाह अकबर तथा जहांगीर के दरबार में जाडा मेहडु, दुरसा आढा, लक्खा बारहठ, शंकर बाहरठ, माला सादू, हापा बारहठ आदि चारण कवि राजस्थान के तत्कालीन कतिपय राजाओं के माध्यम से सम्मान पा चुके थे।

बादशाह अकबर नीति-निपुण, इतिहास-प्रेमी, साहित्य अनुरागी, संगीत-काव्य कला पारखी एवं ख्याति-लोभी व्यक्ति था। राजस्थान कवियों के काव्यवर्णोंनो, ख्यात ग्रंथों तथा अरबी-फारसी आधार स्रोतों से ज्ञात होता है कि वह अरबी, फारसी के काव्य की भाती ही भाषा-काव्य (ब्रज तथा डिगल) को भी पसंद करता था। चारण कवि कुंभकरण सांदू भदौरा (नागौर) ने अपने प्रसिद्ध काव्य रतनरासो के कविवंश-वर्णन में अपने पितामह माला सांदू के लिए लिखा है कि-बादशाह अकबर ने माला से अचलदास तिलोकदास कछवाहा तथा अजमेर के प्रांतपाल दस्तरखान के युद्ध पर रचित भ्क्तुलने छंद सुनकर माला के काव्य की प्रशंसा की और उससे अपनी अहमदाबाद विजय पर भ्क्तुलने लिखने के लिए अबभ्यर्थना की। उस समय दरबार में राजा रायसिंह, राजा मानसिंह, राजा उदयसिंह, राजा टोडरमल्ल, राजा बीरबल, तानसेन तथा नवाब रहीम आदि बड़े शाही उमराव उपस्थित थे।

माला सांदू की भांति ही लक्खा बारहठ भी अकबर तथा जहांगीर के दरबार में सम्मानित व्यक्ति था। लक्खा शाही सेना के अम्बर चम्पू (मालिक अम्बर हब्शी) के विरुद्ध अभियान में सम्मिलित था। उक्त संदर्भ में लक्खा के सम्बन्ध में दो दोहे उपलब्ध है--

*अइयो लखपत आंगमण,* 
*रुक वदै दोय राह।*
*तै भांगो नादण तणा,* 
*अबर चंपू नरनाह।।*
*अकबर मुख सूं अक्खियौ,*
*रूड़ो कह दहु राह।*
*मै पतसाह दुनियानपत,*
*लखो बरण पतसाह।।*

अकबर की मृत्यु के बाद लक्खा स्. १६६५ वि. में जहांगीर से भी पुरस्कृत हुआ था। उसने उसे एक हाथी पुरस्कार में दिया था।
लक्खा के देहावसान पर बादशाह जहांगीर द्वारा संम्वेदना संदेश भेजने तथा उसके जेष्ठ पुत्र नरहरिदास बारहठ (अवतारचरित्र के लेखक) को शाही सेवार्थ आमंत्रित करने का वर्णन गोयल रावलोत नामक समसामियक कवि ने भी किया है--

*सुणो तांम सुरताण राण विवना लखपति।*
*मूका खाण तम्बोल पाण मलिया आसपति।।*
*कमळ ऐम वलि वहै बात ऐ वारौवारी।*
*सुख लेगयो सरबस्स अरध राजस्स हमारी।।*
*क्या कहूँ रारि घटि घटि कथन घण दुख करि करि धणो।*
*रंजणो दहू राहां रसण गो पतसाहा पेखणो।।*

दुरसा आढा नवाब बैराम खां के माध्यम से बादशाही दरबार में पहुंचा था। वह अजमेर में बैराम खां की सेवा में उपस्थित हुआ और उसकी वीरतादि गुणों की प्रशंसा करते हुए उसने कहा--

*वीभीखण कू वारितट, भेटे वो हिक राम।*
*अब मिळगा अजमेर में, दुरसा को बेराम।।*
*आफताब अघेर पर, अगनी पर ज्यूं नीर।*
*दुमसा कवि का दूक्ख पर, है बहराम वजीर।।*

बादशाह अकबर ने दुरसा को पुरस्कृत भी किया था। हापा चारण के बादशाह अकबर से परिचय का संकेत अकबरी दरबार में है। इसकी पुष्टि वीर विनोद से भी होती है।

इतना उल्लेख करने का परियोजन यह है कि शाही दरबार में राजस्थान के राजाओं तथा शाही मनसबदारों के सहयोग से राजस्थान के चारण कवियों का प्रवेश संभव हुआ।

राजपूत राजाओं तथा योद्धाओं के अतिरिक्त जाडा मेहडु द्वारा रचित रचनाएं मुगल सम्राट अकबर, नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना तथा महावतखां की वीरता उदारता से सम्बन्धित है। अकबर, विशाल देश का सम्राट होने के अलावा दूरदर्शिता, वीरता, उदारता तथा शोर्य आदि अनुपम गुणों का भी पुन्ज था। महावत खां तथा नवाब खानखाना भी वीरता, उदारता और राजपूत संस्कृति के उपासक तथा प्रशासक थे। किंतु नवाब खान खाना वीरता और वदान्यता के साथ साथ कवि और काव्य-रसिक भी था। बादशाह अकबर के बड़े अमीरों में था। अरबी, फारसी, तुर्की तथा हिंदी भाषा का उसका अच्छा अधिकार था। वह उच्चकुल, उच्च स्वभाव, उच्च विचार, तथा मुक्त-कर व्यक्ति था। उसके पास अर्थ कामना लेकर जो भी व्यक्ति जाता था वह वछित वस्तु प्राप्त कर वापस लौटता था। खानखाना की गुण ग्राहकता, दयालुता ओर उदारता की प्रशंसा 'मअसिर रहीमी' नामक संकलित कृति में वर्णित कही जाती है। अतः राजस्थान के कुछ कवि उसके माध्यम से भी मुगल दरबार में प्रवेश कर सम्मान-अर्जन कर पाये हो तो असंभव नहीं कहा जा सकता।

मुगल-दरबार व्यवस्था मैं क्या मुसलमान और क्या हिंदू सभी अमीरुल उमरा तथा राजा-रावो को खड़ा रहना पड़ता था। शाही दरबार में मनसब और पद-जो उनकी प्रतिष्ठा तथा वैभव का आधार था- के अनुसार उनके खड़े रहने आदि की नियत व्यवस्था थी। उनके सहारे के लिए संभाग्रह में रेशम के लच्छे (एक किस्म की डोरीयाँ) लटकते रहते थे। क्लांलतार में सहारे के लिए वे उन्हें पकड़ लेते थे।

जाडा मेहडु के अकबरी दरबार में सम्मान तथा स्थान प्राप्त करने का उल्लेख बारहठ कृष्णसिंह, मुंशी हरदयाल, मुंशी देवीप्रसाद, कविराज मुरारदान आसिया, आदि विद्वानों ने किया है। मुंशी हरदयाल ने लिखा है-

          .... जाडाजी मेंहडु ने बादशाही दरबार में सब कवि लोगों को बैठक दिलाई थी। वह मोटा था। उसको दरबार में खड़े रहने से तकलीफ रहती थी, इसलिए एक दिन वह यह सोरठा पढ़ कर बैठ गया--

*पगां न बळ पतसाह, जीभा जस बोला तणो।*
*अब जस अकबर काह, बैठा बैठा बोलस्या।।*

एक नवाब उसके पास खड़ा था। उसने फौरन हाथ पकड़ कर उठाया और खड़ा कर दिया। मगर बादशाह ने उसको उस दोहे का मतलब समझ कर हुक्म दिया कि चारण आयंदा दरबार में बैठा करें।

उस समय शाही दरबार में विधमान नवाब रहीम खानखाना ने जाडा के काव्य तथा अन्य गुणो की स्लाघा करते हुए कहा-
*धर जड्डा अबर जड्डा, अवर न जड्डा कोय।*
*जड्डा नाम अलाह दा, जड्डा मेहडु जोय।*
*जड्डा गुण जड्डा बखत, जड्डा नाम कहाय।*
*सबद न जड्डा ऐकठा, कवि पातळा न थाय।*

जाडा कवि होने के अतिरिक्त सभा-चतुर, किया-चित्तूर, विनोदप्रिय, प्रत्युत्पन्नमति तथा सांहसी भी था। अतः परम् उदार, गुणग्राही बादशाह ने रहीम का समर्थन पा, उसे दरबार में बैठ कर काव्य-पाठ करने की अनुमति प्रदान की।

कवि जाडा का शाही दरबार में प्रवेश उसके प्राप्त काव्य के आधार पर बादशाह की खानजमा अलीकुली तथा बहादुरखां पर सन्  १५६७ ई. में विजय तथा जगमाल के वि.सं. १६२८ में मेवाड़ से जहाजपुर जाने के बाद ही किसी समय माना जाना चाहिए।

इतने सब विवेचन के बाद भी सुपुष्ट प्रमाणों के अभाव में आधिकारिक रुप से यह नहीं कहा जा सकता कि जाडा महेडु अजमेर के सूबेदार किवा जगमाल सिसोदिया अथवा खानखाना अब्दुर्रहीम में से किस की कृपा से मुगलदरबार में पहुंचा। परंतु जाडा रचित दोहे से यह तो स्पष्ट प्रमाणित है कि उसका खानखाना रहीम से अच्छा परिचय था। और, वह खानखाना से पुरस्कारादि प्राप्त कर लाभान्विंत हुआ था। उसने नवाब खानखाना के प्रति कहां है--

*खानाखान नवाब रो, अम्हा अचंभौ ऐह।*
*मेर समाणो मोट मन, साढ़ तिहत्थी देह।।*
*खानाखान नवाब री, आदमगिरी धन्ना।*
*मह ठकुराई मेर-सी, मनी न राई मन्न।।*
*खानाखान नवाब री, तेग अड़ी भुजदंड।*
*पूठा ऊपरी चडपुर, धार तले नवखंड।।*
*खानाखान नवाब ने, वाही तेग वुखाळ।*
*मुदफर पक्का अंब ज्यू, फेर न लग्यो डाळ ।।*
*खानाखान नवाब रै, खांडे आग खिवंत।*
*पाणी वाळा प्राजले, त्रणावाळा जीवंत।।*
*खानाखान नवाब रो, ओ ही वडो सुभाव।*
*रीझ्या ही सरपाव दै, खीझ्-यां ही सरपाव।।*

उपर्युक्त दोहों में खानखाना की वीरता और उदारता का वर्णन है। कवि ने उसकी रीभ्क्त और खीभ्क्त दोनों ही सीमातीत चित्रित की है। मुजफ्फर सम्बधी दोहो से इस ऐतिहासिक सत्य का भी उदघाटन होता है कि कवि का वि. स. १६४० तक खानखाना से संम्बंध बना रहा। खानखाना ने गुजरात के ईतिहास प्रसिद्ध सुल्तान मुजफ्फर गुजराती को वि.स्. १६४० में पराजित कर श्रीविहीन कर लिया था।

यहां प्रसंगवसात् खानखाना रहीम और जाडा महेडु के प्रयत्न से जगमाल को जहाजपुर मिलने तथा जगमाल के साथ १६४० कार्तिक सुदी ११ को दत्ताणी के युद्ध में जाडा मेहडु के मारे जाने बाबत प्रचलित की भ्रांति का निराकरण करना भी आवश्यक है। बारहठ किशनसिंह, कविराज श्यामलदास तथा महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण के तथ्यों को बिना जांचे ही पिछले दिनों राजस्थान के कई विद्वानों ने भी जाडा की मृत्युद ताणी के कथित युद्ध में होनामाना है। राजस्थान में यह भ्रम कविराज श्यामलदास के इस कथन से फैला है-

``' ' ' ' ' महाराजा जगमाल लड़ाई में मारा गया, और बहुत से सरदार उनके साथ काम आये, जिनके नाम नीचे लिखे जाते हैं----

राव रायसिंह चंद्रसेणोत, दांतीवाड़े का कोलीसिंह' ' ' ' ' चारण (१) 
महडु जाडा वगैरह लोग शाही मददगारों के साथ मारे गए।।''

कविराज श्यामलदास ने संभवत: यह तथ्य महाकवि सूर्यमल्ल प्रणीत वंशभास्कर महाचंपू से लिया है।
 महाकवि सूर्यमल्ल ने वंशभास्कर में जगमाल के साथ जाडा के मारे जाने का निम्न प्रकार से वर्णन किया है--

                  *छंद दोहा*

*मेंहडु चारन नाम करि, जड्ड रु जगमाल।*
*रहत बाढ़ मैत्री रचे, चिरतै इक मन चाल।।*
*जगमाल सुकवि जड्ड जुत, विजय भीर इम बीर।*
*सजि आयो सुरतान सिर, स्वामि धर्म धरि धीर।।*

                   *छंद पध्दति*

*इक और परयो कवि जड्ड येह।*
*दुरसा हु परयो कहु बिकल देह।।*
*निज पर कितेक जीवत निहारि।*
*सब लिय उठाई बैरहु बिसारि।।*
*सो जड्ड कविहु कछु आयु सेस।*
*निरखत बिसास ढिग गो नरेश।।*
*अहिफेन दैन लग्यो उठाई।*
*सो जड्ड नट्यो यह नय सुनाई।।*
*जगमाल सुह्रद मम आहि जत्थ।*
*तह लैन उचित लै चलहु तत्थ।।*
*इहि छल नृजान धरि भेजि ऐन।*
*सिसोद लख्यो व्यसु मध्य रैन।।*
*बिनु श्वास मुच्छ भोहन फबाइ।*
*बलि कोहु देवरा तल दबाइ।।*
*सुतो तास उर पर कटार।*
*पायो मृत सहु करि सत्रु पार।।*
*सुरतान राजकुल अति सराहि।*
*तब किय बिधि समुचित दहन ताहि।।*
*जड्डहुँ जगमालहि अनसु जान।*
*गल छेदि मरयो पुनि असह ग्लानि।।*

महाकवि सूर्यमल्ल ने इस प्रकार कवि दुरसा आढा और कवि जाड़ा मेंहडु दोनों के रणभूमि में घायल हो जाने व तदनन्तर जगमाल के समरांगण में मारे जाने का सम्बाद सुनकर जाडा द्वारा कटार से प्राणघात करने का उल्लेख किया है। कवि दुरसा के दताणी के युद्ध में घायल होकर समरभूमि में गिर पड़ने तथा राव सुरतान देवड़ा द्वारा उसका उपचार करवाने तथा स्वस्थ होने पर लाखपसाव आदि देकर सम्मानित करने की विविध स्रोतों से परिचित मिलती है। यही नहीं दुरसा की अधावधि अर्चित सबसे बड़ी उपलब्ध कृति 'राव सुरतान रा भ्क्तुलण' काव्य की रचना भी कथित युद्ध के पश्चात की ही है।

कवि जाडा के दन्ताणी के युद्ध में सम्मिलित रहने तथा वही मर जाने का वंशभास्कर से अतिरिक्त अन्यंत्र कोई वृतान्त नहीं मिलता। दत्ताणी के उल्लेख्य युद्ध में शाही पक्ष के कोई ८७ परिगण्य व्यक्ति तथा उनके सैनिकों के मारे जाने का ख्यात ग्रंथो में विवरण है। उनमें ईसर बाहरठ तथा जयमल्ल चारण के मारे जाने का संकेत है, पर जाडा का नामोल्लेख नहीं है। अतः जाडा की मृत्यु सम्बंधी वंशभास्कर का वर्णन स्वीकार करने योग्य नहीं है।

जाडा मेंहडु की रचनाओं तथा ख्यातो में प्राप्त अन्य प्रसंगों से भी यह पाया जाता है कि जाडा मेहडु दत्ताणी के चर्चित युद्ध (वि. स्. १६४०) के बाद तक भी जीवित था। उपर्युक्त युद्ध घटना के पश्चात् नवाब खानखाना, रहीम राव केशवदास, भीमोत राठौड़, मानसिंह बागडिया चौहान तथा शार्दूल पवार आदि पर रचित कवि का उपलब्ध काव्य भी हमारे कथन की पुष्टि करता है। शार्दूल पवार और भोपत राठौड़ आदि के मध्य मार्गशीर्ष शुक्ला १५ स्. १६६३ वि. में युद्ध हुआ था। जिसका जाडा ने सविस्तार वर्णन किया है।

जाडा और जगमाल के आश्चित आश्रयदाता सम्बंध को लेकर पहिले यथास्थान जिक्र किया जा चुका है। जगमाल ने वि. स्. १६३६ में जाडा को अपने जहाजपुर राज्य का सरसिया (सरस्या) ग्राम 'सासण' स्वरुप प्रदान किया था। सिरसिया जहाजपुर के समीप ही एक छोटी पहाड़ी के नीचे स्थित है। इस समय यह कोई सवा सौ घरों की आबादी का ग्राम है। सिरसया के ताम्ब्रपत्र की प्रतिलिपि की अनुकृति इस प्रकार है--

सधै श्री माहाराजधिराज महाराणा श्रीजगमालजी आदेसातु चारण जाडा न (नूं या नै) गांव १ मोज़े सरस्यो रोपा (गांव का नाम) तीरलो मया कीधो। परगना जाजपुर के आगाहट सांसण कर दीधो। हिंदु न गाय तुरकांणे सूर (सूअर) मुरदार। 

​आप दतम परदतं मेटेती बीसु धरा।​
​ते नरा नरकां जायते, जो लग चंद्र देवाकरा।।​

​संमत १६३६ रा बरखे काती सुदी ५ दली म (में) लख्यो छै।​

सरसिया ग्राम की प्राप्ति के बाद जाडा के अपने समसामियक अन्य प्रसिद्ध चारण भाट कवियों के साथ बीकानेर के महाराजा रायसिंह द्वारा सम्मानित होने का उल्लेख प्राप्त है। बीकानेर के महाराजा रायसिंह और सुरतान देवड़ा सिरोही का वि. स्. १६४९ में जैसलमेर के रावल हरराज देवड़ा की पुत्रियों के साथ विवाह हुए। तब महाराजा रायसिंह ने राजपूत परम्परानुस्वार आगन्तुक कवियों तथा याचको को विवाहोपरांत 'त्याग' नामक दान दिया था। महाराज रायसिंह द्वारा घोड़े, हाथी, तथा द्रव्य आदी प्राप्तकर्ता कवियों में बारहठ लक्खा, माला सांदू, सांइया झूला, जाडा मेहडु आदि की उपस्थित का प्रसिद्ध ख्यातकार दयालदास सिढायच ने निम्नांकित रूप में उल्लेख किया है--

​"महाराजा रायसिघजी परणीज नै डेरा पधारिया त तठे घोडा दोय सौ।​
​हाथी ऐक महडू जाडै नूं। हाथी ऐक बारहठ लेखै (लखै) नूं। हाथी ऐक झूले सांइये नूं। हाथी एक देवराज रतनू नूं। हाथी ऐक दूरसै आढे नूं।​
​°°°°°इणा वगेरै हाथी ५२ दीना।"​


इस अवसर पर दयालदास री ख्यात के अनुस्वार ५२ हाथी चारण भाटों को दिए गए थे। महाराज रायसिंह के जैसलमेर में विवाह और उस अवसर पर दान देने का गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा डॉ. सी. कुन्हनराजा तथा तत्सामयिक कवि गोपा सिढायच चारण के गीत इत्यादि से भी प्रमाणित है। अतः इन उल्लेखों के साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि रायसिंह जैसे दातार का जहां विवाह होगा, वहां कवि नहीं आये होंगे और उन्हें दान न दिया होगा, यह कैसे माना जा सकता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि कवि जाडा मेहड़ू सं. १६४९ में जीवित था और उसने बीकानेर नरेश से एक हाथी पाया था।

यहां यह भी उल्लेख करना अपासंगिक नहीं होगा कि राजस्थान के प्राप्त आधुनिक इतिहासों में रावल हरिराज भाटी जैसलमेर की मृत्यु वि. स. १६३४ पोष सुदी ८ वर्णित है, जो सदेहास्पद प्रतीत होती है। कारण कि मारवाड़ के राजा उदयसिंह के विरुद्ध वि. स. १६४३ में सोजत परगने के चारणों के आग्रह पर राजस्थान के चारणों ने आऊवा स्थान पर धरना दिया था। तब धरना से उठकर कतिपय चारण यंत्रतंत्र मारवाड़ से बाहर चले गए थे। उस समय मारवाड़ से जैसलमेर गये रतनू शाखा के कवि डूंगरसी द्वारा हरिराज का वर्णन महत्व का है। यो भी रावल हरिराज द्वारा महाराज रायसिंह बीकानेर तथा वरयात्रिओ की अगवानी तथा स्वागत करने का दयालदास ने उल्लेख किया है। किंतु राजस्थान के इतिहास लेखक डॉ. गौ. ही. ओझा, श्री गहलोत, म. विश्वेश्वरनाथ रेऊ आदि ने हरिराज का निधन १६३४ अंकित किया है, जो उचित नहीं प्रतीक होता है। कतिपय अन्य आधारों से भी स. १६४३ वि. के बाद तक हरिराज के जीवित होने के प्रमाण मिलते हैं। जाडा मेहडु के बाल्यकाल, माता-पिता, शिक्षा तथा विवाहादि के विषय में कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। सिरसिया में जाडा की कोटडी (मकान) का परकोटा और उसमें स्थित विशाल महल, जो जाडा द्वारा निर्मित कहेजाते हैं; और आज जिणविस्था में उदासीन खड़े हैं; उनकी भितियों की दृढता पलस्तर की घुटाई तथा सुंदरता आदि कला-कार्य निर्माता सुरुचि, कला-प्रेम तथा वैभव सम्पदा की साक्षी देते हैं। वहां वे तीनो महल, काळा महल, धवळा महल तथा  कबांणीया महल के नाम से प्रसिद्ध है।  काले और धोले महल पलस्तर तथा छत की धवल-श्यामल पट्टीयो के कारण काले-धोले महल कललाते हैं। कबांणियां महल में लकड़ी के मोटे पाठ की कमान लगी हुई है। कदाचित इसलिए उनका काला, धोला और कबांणियां नामकरण हुआ होगा। रावळे (जनाने) की डयोढी के सामने परकोटे के भीतर ही  जाडाजी की आराध्य देवी भगवती जोगमाया का एक छोटा-सा सुंदर देवलय बना हुआ है। वह भी जाडाजी द्वारा ही निर्मित माना जाता है। यद्यपि सिरसिया में स्थित जाडाजी की वह कोटडी अब जीर्णावस्था में है। और निकट भविष्य में भू-शयन की प्रतीक्षा में हैं, पर कोटडी का आहाता महलों की विशालता, आकृति और चारुता से अनुमित होता है कि जाडा धन-वैभव तथा साधन-सम्पदा-संपन्न व्यक्ति था। 
सिरस्या ग्राम में निवासित जाडा के वंशजों से प्राप्त वंशवृक्ष तथा मौखिक परिचित तथा समसामयिक स्फुट काव्य-स्रोतों के अनुस्वार जाडा के तीन पुत्र और एक पुत्री थे। जिनके कल्याणदास, रूपसी, मोहनदास तथा कीका (कीकावती) नाम थे। कीकावती का विवाह ख्यातिलब्ध बारहठ लक्खा नांदणोत के साथ हुआ था। प्रसिद्ध महाकाव्य 'अवतार चरित्र' का प्रणोता, महाराणा राजसिंह मेवाड़ का काव्य गुरु तथा महाराजा मानसिंह जोधपुर का श्रद्धाभाजन नरहसिंहदास बारहठ और उसका अनुज गिरधरदास जाडा के दोहिते थे। महाकवि सूर्यमल्ल के अनुसार चारणों में नरहरिदास जैसा विदुष भाषा कवि अन्य कोई चारण नहीं हुआ। गिरधरदास भी चारण समाज में अग्रगण्य तथा वीर-प्रकृति का उदार व्यक्ति था। जाडा-तनया कीकावती बड़ी भगवद् भक्त दयालु चित एवं परोपकार  वृत्ति की उदार ह्रदय नारी रत्न थी। कीकावती की परदु:खकातरता, परोपकारिता, दयालुता, विदुषता व भक्ति-निष्ठाता से सम्बंध में एक छप्पय  उदधृत है~

*सत सीता सारखी, तप विधि कूंत तवंती।*
*कुळ धर्मह कामणी, धीय हरि ध्यान धरंती।।*
*पति भर्ता पदमणी, संत जेही सरसन्ती।*
*हंस वधू परि हालि, बोध निरमळ भूझंती।।*
*लखधीर लच्छि 'जाडा' सधू, सुजस जगि सोभावती।*
*गंभीर मात गंगा जिसी, वेय वाचि कीकावती।।*

कीकावती द्वारा वि. सं. १६८७ के प्रांत व्यापी भयंकर दुर्भिक्ष में क्षुधा पीड़ितों की पुष्कल सहायता करने का वर्णन भी एक प्राचीन छप्पय में प्राप्त हैं। उस अकाल की विकरालता का जैन कवि धर्मेंवर्ध्दन ने भी वर्णन किया है। कीकावती देवी की पपरम् भक्त थी। उसने मेड़ता पट्टी के अपने ग्राम भैरुंदा में अपनी कुल देवी का मंदिर बनाया जो भैरुंदा ग्राम में अवस्थित है।

जाडा के पूर्व निर्देशित तीनों पुत्रों में जेष्ठ कल्याणदास अपने समवर्ती चारण कवियों में अति सम्मानित, राज्यसभा-समितियों में प्रतिष्ठत तथा श्रेण्य कवि था। कल्याणदास को जोधपुर के महाराजा गजसिंह राठौड़ ने १६२३ तथा १६६४ वि. में क्रमश: एक लाख पसाव व एक हाथी तथा एक लाख पसाव प्रदान किया था। अब तक की अनुसंधान-अन्वेषण में कल्याणदास के राजस्थान के शासकों तथा योद्धाओं पर सर्जित कोई १२ वीरगीत ८ छप्पय और बूंदी राज्य के परम प्रतापी शासक राव रतन हाडा के युद्धों पर रचित 'राव रतन हाडा री वेली' खण्ड काव्य प्राप्त है। राव रतन हाडा री वेली जहां कोटा-बूंदी के हाडा शासकों के इतिहास के लिए महत्व की कृति है। वहां राजस्थानी वीर काव्य परंपरा की भी पाक्तीय रचना है। राजस्थानी के वेलिया गीत छंद में रचित यह डिंगल की उत्कृष्ट रचना है। रूपसी और मोहनदास का कविरूप में कहीं कोई परिचय अधावधि अनुपलब्ध है। मोहनदास के पुत्र बल्लू मेंहडु के गीत, कवित्त, दोहे आदि स्फुट छंद गुटको में यंत्रतंत्र मिलते हैं। वह बूंदी के रावराजा शत्रुशाल, महाराजा अजीतसिंह जोधपुर महाराजा सवाई जयसिंह कछवाहा आदि का समकालीन था। रावराजा शत्रुशाल ने उसे बूंदी का ठीकरिया गांव प्रदान किया था।

राजस्थान में जाडा की संतति जाडावत मेहड़ू कहलाते हैं। जाड़ावतो के सिरसिया, खेड़ी, सचेई, देवलदी, कचनारा, हमजाखेड़ी, मऊ, खेजड़ला, ठीकरिया, लीलड़ा, जैतल्या, देवरी, सोडावास, राजोला तथा चापड़स इत्यादि अनेक गांव है। जाड़ावतो में कल्याणदास, बल्लू, बिहारीदास (राव अखेराज देवड़ा सिरोही का समकालीन), हररूप, कृपाराम (राजा उम्मेदसिंह शाहपुर का  आश्चित), मेघराज (राजाधिराज लक्ष्मणसिंह शाहपुर का कृपा पात्र), महादान (महाराणा भीमसिंह तथा महाराजा मानसिंह से सम्मानित), भीमदान (राजा सुजानसिंह शाहपुर का आश्चित) तथा गोपालदान देवरी आदि कतिपय पर विशिष्ट कोटि के कवि हुए हैं। जाडा महेडु का काव्य-सर्जन-काल निर्धारित करने के लिए उसकी उपलम्यमान रचना ही अधावधि एक मात्र आधार है  चारण कवि लोकमान्य देवी-देवताओं, पुराणपुरुषों, धार्मिक नेताओं तथा भक्ति काव्य को छोड़कर प्रायः अपने अनुग्राही आश्रयदाताओं सम सामयिक युद्धवीरो तथा समकालभव दानवीरों पर ही अधिकतर काव्य भी लिखते थे। ऐतिहासिक नायकों घटनाओं एवं प्रसंगों के वर्णनो से ओतप्रोत चारण कवियों का काव्य न स्वात: सुखाएं था और न केवल कवि-धर्म निर्वहन ही था, अपितु कवियों के जीविकोपार्जन का एक सम्मानित, लाभप्रद तथा उत्तम आवश्यक साधन भी था। उन्हें दान में घोड़े, हाथी, लाखपसाव, करोड़पसाव, भूमि और ग्राम प्राप्त होने के उल्लेख राजस्थान के ख्यात ग्रंथों प्रबंधकाव्यों तथा स्फुट छंदों में प्रचुरता से प्राप्य है। चारण कवियों के काव्य का योद्धाओं में वीरता के भाव का संचार करने युद्ध का वातावरण बनाये रखने, आध्दितीय वीरों अथवा उनके पूर्वजों की प्रशस्ति गान करने, योद्धाओं के प्रतिस्पध्र्दा भाव भरने तथा अनुकरण की भावना जगाने का और योद्धाओं के युद्ध कौशल का वर्णन ही मुख्य स्वर होता है।

जाडा मेहड़ू रचित अधावधि उपलब्ध काव्य ऐतिहासिक पुरुषो अथवा ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बध्द है। और, रचनाओं के नायक एवं घटना प्रसंग भी कवि के अपने समकालीन है। अतएव, जाडा रचित काव्य को इतिहास की निकष पर परखने से अधिकांश रचनाओं का रचनाकाल वि. स्. १६२४ से १६७१ वि. के मध्य निर्धारित किया जा सकता है। वि. स्. १६२४ में मुगल सम्राट अकबर और मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के मध्य चित्तौड़ का विख्यात युद्ध हुआ था। चित्तौड़ के उल्लेखित युद्ध में राजस्थान के प्रसिद्ध वीर राव जयमल्ल मेड़तिया, रावत पत्ता चूड़ावत, ठाकुर इसरदास मेड़तिया, ठाकुर प्रतापसिंह मेड़तिया, वीर कल्ला राठौड़ रनेला, आदि अनेकानेक योद्धा मारे गए थे। तदनन्तर महाराणा उदयसिंह के अवशेष जीवनकाल, महाराणा प्रतापसिंह के समय शासनकाल और महाराणा अमरसिंह के शासन वर्ष १६७१ वि. तक वह दिल्ली-मेवाड़ का पारस्परिक संघर्ष अनवरत-सा चलता रहा। अंततोगत्वा महाराणा अमरसिंह के अन्तिम काल में वि. स् १६७१ वि. में बादशाह जहांगीर और अमरसिंह के मध्य संधि होने पर ही मेवाड़ की भूमी पर तीन पीढियो से प्रचलित वह युद्ध कुछ काल के लिए समाप्त हुआ था।

कवि जाडा ने पूर्वोल्लेखित तीनों महाराणाओं, उनके सामंत सहयोगीयो, समकालीन योद्धाओं व तद् कालावधि की युद्ध-घटनाओं पर वीर गीत, छप्पय तथा अन्य छंद रचे हैं। अतः रचना नायकों तथा वर्णन-विषयों के आधार पर कवि का काव्य सर्जनकाल वि. स्. १६२४ - १६७२ वि. तक स्थिर किया जा सकता है। तदनुपरात कवि रचित काव्य उपलब्ध नहीं हुआ है। इससे प्राप्त आधारों पर यह अनुमान किया जा सकता है कि स्. १६७१ - ७२ वि.  के पश्चात ही कवि का किसी समय निधन हो गया होगा?

वैसे चारण कवियों पर उनके याचक मोतीसर जातीय कवियों द्वारा कथित दोहे, सोरठे, गीत, कवि आंदि मुक्तक रचनाएं सग्रहो में यंत्रतंत्र उपलब्ध होती है। सिरसिया में भी मोतीसरों का घर है। सिरसिया का नंदजी मोतीसर अच्छा कवि हुआ है। मोतीसरो रचित जाडा के समकालीन लक्खा बारहठ, माला सादू, दुरसा आढा, आदि की प्रशंसा के स्फुट छंद मिलते हैं, परंतु जाडा के संबंध में प्रयत्न करने पर भी कहीं कोई रचना नहीं मिली है। जाडा के आश्रयदाता महाराज जगमाल सीसोदिया पर भी आशा के अनुकूल रचनाएं उपलब्ध नहीं हुई है। सिरस्या ग्राम और महाराजा रायसिंह बीकानेर के दान के अतिरिक्त उसने अन्य किसी से कोई भूमि, पुरस्कार, घोड़े, हाथी, प्राप्त किये हो ऐसे प्रमाण भी अनुपलब्ध है।  अतः उपलब्ध सामग्री के आधार पर जो सुलभ हुआ है उसी पर यह विचार किया गया है।

कविवर जाडा मेहड़ू मूलत: वीररस का कवि है और उसने अपने काव्य में वीर भावों की संवाहक ओजमयी डिंगल भाषा की शब्दावली का प्रयोग किया है। मध्यकालीन चारण कवियों की काव्य भाषा प्रमुखत: डिंगल ही थी। किंतु डिंगल के साथ-साथ जाडा ने तत्सम, अर्ध्द तत्सम, तद्भव, देशज और अरबी फारसी के शब्द से भरपूर भाषा का भी पुष्कल प्रयोग किया है। इससे जहां भाषा में ओज-आभा बढ़ी है वहां भाव-सप्रेषणता में भी पर्याप्त तीव्रता आई है। जाडा राज्यश्रित राजदरबारी कवि था। अतः तत्कालीन शासक समाज, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक प्रवृतियों आदि का उसे पर्याप्त ज्ञान तथा अनुभव था। मुगल संस्कृति और हिंदू संस्कृति के उस सम्मिलन काल में अरबी फारसी शब्दावली से कवि का परिचित होना आवश्यक भी था। तब केंन्द्रीय स्तर पर फारसी भाषा का आम प्रयोग प्रचलित था। अतः कवि के शब्द भण्डार की परिचित के लिए कुछ उदाहरण दृष्टव्य है--

अरबी फारसी के विदेशी शब्द- *सिरदार, जिरह, खंजर, तेग, गाजी, सिरताज, साबाति, जबूर, जबर, जंग, साबासै, बंदा, नेजा, असली, जद, सूरतमदं, निवाज, रोजा, सिलहपोस,  अरस, लसकर, मीर, फुरमाण, सुरत, गाजी, दरीखानै, आलमपनाह, फ़ौज, हूर, बगतर आदि।*

संस्कृत मुलक तत्सम शब्द- *समीर, सुत, रवि, त्रास, तेज, त्रय, अंजर, अचल, मणिधर, फणपति, सुर, रूद्र, घाट, मयंक, कमला, वाराह, पाणि, कुल, मदगंध, कुलतिलक, हरि, हंस, गजराज, कुंभ, कटि, चरण, आभरण, नेत्ररस, कंत, वारंगना, अमर, पत्र, रुधिर, पवन, मीच, विष, प्रचंड, दूरित, निगम, ससार, कुंडली, द्वारा, पराक्रम, संग्राम, रूपक, कमल, भूपाल आदि।*

अर्ध्द-तत्सम- *सरग, मुणसांगुर, दळ, विभ्रम, गज्ज, तप्प, जोगणिपुर, ब्रहमंडी, इळ, सूर, मुगति, अभंग, मुकटेसवर, माणिक, भारथ, विकराळ, समंद्र, जवन, प्रिथम, दांणव, भामणि, सामंत, पलब, माण, प्रमाण आदि।*

तदभव शब्द - *ऊजळा, अपछरा, नरिन्द, विमर, नयर, आतम, सुतण, सील, गरळ, गिर, संकर, अरक, जगदीस, जण, घड़, सनान, वपि, गयंद, अलेखं आदि।*

देशज, अनुकरणात्मक तथा ध्वन्यात्मक शब्दों का तो सर्वाधिक बोल बाला है। कुछ उदाहरण है-

*वाड़, वख वळे, जाड़, बीजा, भामी, नाठा, अगळ, पखै, जूझ, साद, डोहण, बिजड़ी, सुजड़ी, सळकै, आंपडै, लळवळ, कीस, हीसं, बित्रे, गुड़ीयं, अड़ीया, केड़, खेड़, जायौ, सारे, फुरळंत, बेहड़ा, धींग, ऊसस्से, भीछ, पिडि, ढक्के, धाई, वढे, वाखर, घूंमरि, क्यावर, सुपह, नेठाह, थड़बे, प्राझी, तेढीयौ, मोकळीयौ पौतारे, साबळ, उरेटै, उपराठे, चौकड़ी, सुछळी, विढेवा, अनड़ वरतारा, सणकै, दड़क्के, गंमगंमा, सम समां, घड़छि, ग्रास, रळीया आदि।*

अतः सुस्पष्ट है कि कवि का शब्द- भण्डार कर्पूर है तथा वह यथा स्थान, यथा प्रसंग भावानुकूल शब्दावली का प्रयोग करने में प्रवीण है।

यद्यपि जाडा कृत यह काव्य इतिहास की परिधि में आबद्ध काव्य है। कवि की दृष्टि सीधी अपने काव्य नायकों की वीरता, साहस, शौर्य तथा वदान्यता का प्रशस्ति आख्यान करने पर रही हैं; तब भी वर्णन में जहाँ भी उपयुक्त अवसर मिला कवि ने वहाँ मुहावरे, कहावतें, तथा लोकरुढियो के प्रयोग किए हैं। इससे भाषा वैचित्र्य तथा भाव वैचित्र्य में बद्धि हुई है।

उदाहरण के लिए यहां कुछ मुहावरे व कहावतें प्रस्तुत हैं।

*१. कोई कहे न हालै केड़।* 
*२. सींहां आपसा खेडं।*
*२. जुध हूँ टळे स वापि जायो।*
*३. दाउ हीणो नह दक्खे।*
*४. धणी स न्याई कहावे।*
*५. खाडि तणे मुहि हुवा खीचडि।*
*६. मूंछ तांणे।*      
*७. सत आडो आयो।*
*८. हीये सालै।।*  
*९. काछवाच निकळंक।*
*१०.कुळवाट रालै।*  
*११.दूठ गज चालता डूगर।*
*१२. लीह नह पतसाह लोपै।* 
*१३.पुळे पहाड़ न जोर पवने।*
*१४. क्यावर मुकताकर।*

वीर संस्कृति का उद्गाता कवि जाडा राजस्थानी लोक संस्कृति लोक विश्वास तथा धर्म-विश्वास के प्रति भी पूर्ण आस्थावान है। उसने राजस्थानी लोक संस्कृति और धर्म-विश्वास को व्यक्त करते हुए कहा है--  'श्रोण तणा पिण्ड पितरां सारे' पितृगण को श्रोण का पिण्ड दान किया है। लोक मान्यता  है कि युद्ध की अन्तिम वेला में योद्धा अपने रक्त का पितृजन को दर्पण देता है, उससे पितृजन प्रसन्न होते हैं और पिण्डदाता पितृऋण से मुक्त हो जाता है।

'किरि सनान गंगा कियो' भारतीय जन के विश्वास के अनुसार गंगा स्नान मोक्ष प्रदाता माना जाता है। इससे प्राणी आवागमन मुक्त हो जाता है। जयमल्ल के वर्णन में कवि ने 'मुगति लीजै माल' कह कर धार्मिक आस्था प्रकट की है।

कवि द्वारा राजस्थानी लोक-रंजक दण्डक नृत्य तथा घूमर आदि के वर्णन से स्पष्ट होता है कि वह लोक-संस्कृत का प्रेमी तथा उसमें रंगा-रमा व्यक्ति था। होलिकोत्सव पर खेले जाने वाले लोक नृत्य 'डांडिया' का उल्लेख करते हुए कहा है--

*१. खेलै जाणि डंडेहडि खेला।*
*२. घेर घूमरि घतये।*

मध्यकाल में मेवाड़ को छोड़कर प्रायः राजस्थान के अधिकांश शासक शाही सेवा अंगीकार कर चुके थे। जन-मानस को यह पराधीनता अरुचिपूर्ण लगी। कवि जाडा ने जन-भावना को अभिव्यक्त करते हुए कहा है--

*थान र्भसट कांइ चाकर थीये, भिडि संग्रहां क फ़ौजा भंजि।*

इस प्रकार वह अपने समय का एक जागृत व्यक्ति भी था। राजदरबारों की गहमह के चाकचिक्य में भी वह जन-भावनाओं का प्रत्यक्ष दृष्टा रहा।

प्रस्तुत कृति में कवि ने संस्कृत-प्राकृत हिंदी और राजस्थानी भाषा के छंदों का प्रयोग किया है। संस्कृत के भुजंगी, आर्या, हिंदी के दोहा, सोरठा, छप्पय (जिसे कवि ने कवित्त कहां है) बेअक्षरी, सारसी तथा राजस्थानी के गीत छन्दों का प्रयोग किया है। गीतों में कवि को सपंखरो तथा साणोर अधिक प्रिय रहे हैं। राव शार्दूल पवार के छंदों के अतिरिक्त कवि रचित अधिकाश छंद गीत, कवित तथा दोहे- सोरठे है। यह सब स्फुट रचनाऐ है। शार्दूल पवार रो छंद एक खण्ड काव्य कृति है। इसमें कुल ११२ छंद हैं।

शार्दुल पवार के छंदों में कवि ने मंगलाचरण में भगवान पदमनाभ, गणपति और सरस्वती की वंदना कर काव्यनायक रावत शार्दुल पंवार के यस-वर्णन की घोषणा की है। वह उसकी वीराकृति का वर्णन करता हुआ उसे दोनों भुजाओ से कवचित, समरांगण में प्रतिपक्षी के सम्मुख  अविचल तथा उसके द्वारा अन अवरुद्ध, आक्रमण वेला में वराह पर सिंह के तुल्य सरोष आक्रमण, किसी अन्यका न अवरोध सहने वाला तथा न बंधन मानने वाला चित्रित करता है--

*उभै बांह सन्नाह सांमी अपल्लो।*
*कड़ख्खे जिसै सीह दीसै कविल्लो।।*
*सदा जोध अलोधवै सूर सती ।*
*कहां तास सादुल पंमार किती।।*

उदारता और वीरता आदर्श योद्धा के विशिष्ट गुण होते हैं। शार्दुल पवार भी दान और युद्ध का समय सुलभ होने पर कभी पीछे नहीं हटता है। 'खान और त्याग' अभयविध वह अपने ख्यात पूर्वज राजा भोज, राजा विक्रमादित्य तथा वीरवर जगदेव के समान है। इस प्रकार कवि ने रावत शार्दूल की कृति-वर्णन का ओचित्य दर्शाते हुए उसके वंश पवार - जिसे चंडावल भी कहा जाता है-  की वीरता, उदारता आदि विशिष्ट गुणों का महिमागान किया है। रावत सार्दुल के निकटस्थ पूर्वज रावत हापा रावत महपा रावत राघा (रघुनाथ), आदि का परिगणात्मक शैली में नमोल्लेख कर शार्दूल के प्रपितामह रावत कर्मचंद, पितामह रावत पंचायन और पिता रावत मालदेव का विस्तार से वर्णन किया है। रावत पंचायन और रावत मालदेव ने क्षत्रियो के तीर्थ चित्तौड़गढ़ की रक्षार्थ यवनो से लड़ेगए योध्दो में प्राणोत्सर्ग कर कीर्ति-वरण किया था। रावत पंचायन ने महाराणा विक्रमादित्य की ओर से मालवा के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण पर चित्तौड़ में शौर्य प्रदर्शित कर वीरगति प्राप्त की थी। कवि ने वीरवर रावत पंचायन के असि संघात में जूझ मरने का डिंगल की सशक्त शब्दावली में वर्णन किया है। यहां वीररस के साथ साथ वीभत्स का भी सुंदर परिपाक हो गया है--

*लौथा बेहड़ तेहड़ लोथी ।*
*बत्थां लूथ हुआ गळबत्थी ।।*
*मुंहडै खांडि थयो जुधमल्ला ।*
*ढहि ढेचाळ पड़े ढिग ढल्ला ।।*
*धड़ धड़ त्रुटते मुंहि धारां ।*
*पुहप वरसीया सीसि पंमारा।।*
*पांचा खांडि तणे मुंहि पड़ीया।*
*चांमरीयाळ चीत्रगढ़ चडीया।।*

वह वीरव्रती पंचायन अपने समबली प्रति भटों से बाहुयुद्ध करता तथा विपक्षी सेना के उन्मत्त गजयुथों को असि-संघोतों से धरा-शयन करवाता हुआ स्वयं खण्ड खण्ड हो रणभूमि में गिर पड़ा। उसकी वीरता पर विमोहित होकर देवगण ने आकाश से सुमन बरसाये। उसका अभिनंदन किया। यों पंचायन तो वीरगति को प्राप्त हुआ और सुल्तान की सेना ने दुर्ग में प्रवेश किया। 
चरित्रनायक रावत शार्दूल का पिता रावत मालदेव दुघर्षवीर था। चित्तौड़ के तृतीय साके में उसने मुगल वाहिनी से लोहा लेकर चित्तौड़ की गौरव - रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति दी थी। तब उसने अपने शीश पर मरण प्रतीक तुलसीदल धारण किया। कण्ठों पर शालिगराम की प्रतिमा धारण की और विजय अथवा मृत्यु की क्षत्रियोचित वीर प्रतिज्ञा के साथ अरि- सेना पर टूट पड़ा। वह अपने तीक्ष्ण - शरो से शत्रु - सेना को सचल करता, कुंतो से भद्रजाती कुंभी कुंभो का भजन करता आततायियों के उत्तमांगों को असि - आघातों से उच्छित्र करता तथा जमदाढो से उनके जिरह - बख्तरो, रक्षा कवचो तथा उरस्थलों को छिन्न-भिन्न करता विदीर्णा करने लगा। अन्ततोगत्वा वीर धीर रावत मालदेव सूर्यमंडल का भेदन कर अमरलोक गया--

*बाण कमांण भांजि बहांबळ ।*
*सिधुर भागा भांजे साबळ ।।*
*ताईया सिरे असिमर त्रुटा ।*
*खांडि खांडि राउत पळ खुटा ।।*
*दळ धन धन राउतांडु आढां ।*
*दुसहां अरि भागी जमदाढां ।।*
*तीर धनख तरकस तुट्टे ।*
*जुधि मुंगल तरकस बंध जुट्टे ।।*

इस प्रकार वातावरण को साकार रूप प्रदान करते हुए कवि ने ओज प्रभाव युक्त शब्द - चयन किया है। अभीष्ट वर्णन के उपयुक्त कवि का शब्द चयन और भावग्रहिता विषय के अनुरूप है।

रावत मालदेव के छः पुत्रों में रावत शार्दुल और संग्राम ने शाही सेवा में पदार्पण प्राण किया। बादशाह ने उसे बदनोर का पट्टा प्रदान किया। राठौड़ों को रावत शार्दूल का बदनोर प्राप्त करना अप्रिय लगा। तब जेतारण के स्वामी भोपत के नेतृत्व में जैतारण, मेड़ता तथा जोधपुर की संयुक्त राठौड़ सक्ति ने शार्दुल पर आक्रमण किया। कवि ने प्रतिपक्षी सेना की सबलता, दुर्दमनीयता का ह्रदयग्राही वर्णन करते हुए कहा है--

*बड़ा जोध जोधपुरा खेति वंका ।*
*निहसै वळे मेड़तीया निसंका ।।*
*सबे साथ दूदा असग्गा सवाया।*
*इसा थाट सादूळ सिरी चल्लि आया।।*

वे अखाड़े की मल्लों के स्वरूप उन्नत स्कं ध महाशूरवीर राठोड़ जो सचरण गिरी तुल्य विशालकाय तथा परमयुध्दोत्साही थे। वेवो कोटों (दुर्गों) के नायक निर्भीक नरेंद्र, वीरता के बड़े विरुद्धधारी तथा बांकुरे योद्धा थे। युद्ध काल में शत्रुओं के लिए साक्षात यमराज थे और उनकी तलवार समस्त संसार में सराही जाती थी। ऐसे विकट भट मालदेवोत, उदावत तथा जयमल्लोत, रावत शार्दूल पर चढ़कर आये--

*महा सूर धीरं वळीकंध मल्लं ।*
*अगे चालता कोट दीसै अपल्ल ।।*
*विढेवा तणा मग्ग जोश्रे विमाया ।*
*इसा थाट सादूळ सिरि चल्लि आया ।।*
*नवां कोट नाइक्क निभै नरिद ।*
*बड़ा विरद झल्लाज वांकिम विदं ।।*
*अरीकाळ जमजाळ जगे अघाया ।*
*इसा थाट सादूळ सिरी चल्लि आया ।।*

अनिमंत्रित उन अरि-अतिथियों का अचानक आगमन सुन; भला शार्दुल उनका स्वागत कैसे नहीं करता ! वह शत्रुओं का आगमन समाचार सुनकर उत्साह से भर गया। उल्लास से उल्लसित उसकी मूंछे उपर तन गई और अक्षो में अरुणाता छा गई। कवि ने शार्दूल के उस समय की मुखाकृति का फबता हुआ चित्राकन किया--

*सादूळो ऊसस्सियौ, संभळीये ववणेह।*
*मूंछ ऊरधे वळ चढो, रग चडिया नयणेह ।।*

यो कवि ने युद्ध नायक शार्दुल और प्रति नायक भोपत की युद्ध कीड़ा का वीर काव्य वर्णन परम्परा के अनुकूल ओजस्वी भाषा में चित्राकन किया है। वीररस से ओतप्रोत इस लघु काव्य कृति के अन्त में युद्ध प्रेमी परभक्षी ग्रध्द वराकांक्षिणी सुर सुन्दरियां, मुण्डमाला प्रेमी मुण्डमाली तथा वीर वैतालों की अभिलषित कामना-पूर्ति कर वर्णन को सम्पन्न किया है--

*पळचार पळ डळ मिले प्रघल वियाळा जुत्थऐ।*
*अछरा वर वरि सूर समहरि मत्र रलिया तत्थऐ।।*
*वीरं वैताळ रद्रजाळ रुण्डमाळ रज्जऐ।*
*कमधां पंमारां खग्ग-धरा भड़ ऊधारां भज्जऐ।।*

अतः कवि यों रावत शार्दुल के वीर चरित्र के प्रकाशन में सफल हुआ है। कृति में वीररस की सरिता पूरे वेग के साथ उमड़ती धूमड़ती विजय-सरोवर में समाहित हुई है। यहां कवि के रण-मृतक वीरों की अप्सराओं से 'रंगरळी' करवा कर युद्ध के दुःखांत प्रसंग को संस्कृत काव्य परम्परा से जोड़ते हुए सुखांत में परिणित किया है।

स्फुट रचनाओं में कवि ने अपने समसामयिक योद्धाओं के युद्ध भियानो, वीर प्रतिज्ञाओं, युद्ध-कीड़ाओ, योद्धा-परंपराओं, कुल गोरव-रक्षा प्रयासों, स्वातंत्र्य-भावनाओं तथा वीर वृतियों का गीतों, छप्पयों तथा दोहों में गुम्फन किया है। बादशाह अकबर के रणथंभोर दुर्ग विजय को लक्ष्य कर कवि ने दुर्ग द्वारा कहलवाया है कि यदि चित्तौड़ के रक्षक राव जयमल जैसा कोई योद्धा दुर्ग-रक्षक होता तो शाही सेना विजय प्राप्त न कर पाती और युद्ध-प्रेमी देवों को रण-कोतुक दर्शन, अप्सराओं को सु वर तथा महादेव को मुण्डमाला प्राप्ति-प्रसंता लाभ होता--

*अमर खेल अपछर सुवर ईस दे आभरण*
*पुणे इम दुरंग रणथंभ अणपाल।*
*श्राईयां दले अकबर धणी सांपनो,*
*मुझ जो सांपत धणी जैमाल।।*

कवि को रणथंभौर बिना युद्ध बादशाह के सुपुर्द करना क्षात्रधर्म परम्परा के विरुद्ध लगा। उसने दुर्गपाल राव सुरजन हाडा की सीधी खुली भत्सर्ना न कर दुर्ग के मुख से ही दुर्गपाल के दुर्ग समपूर्णा कृत्य की चातुर्य्यु के साथ निन्दा करवाई हैं। यहां कवि का वर्णन-कौशल चातुर्य्यु प्रकट होता है।

यद्यपि शाहंशाह अकबर ने अपनी प्रचण्ड वाहिनी के बल से चित्तौड़ दुर्ग को विजय तो कर लिया, पर वह चित्तौड़ के 'अनड़' स्वामी महाराणा उदयसिंह को अवनत नहीं कर सका।
कवि ने उदयसिंह की स्वाधीन-भावना की श्लाधा करते हुए कहां है कि अकबर रूपी कपि ने उदयसिंह रूपी आकाश का स्पर्श करने के लिए बहुविध प्रयत्न किए पर वह उसका स्पर्श नहीं कर सका--

*बह झंप सजे बह करे कटक बळ,*
*नमणि कराबण तणे नियाइ।*
*वानर असुर उदैसिघ व्रहां ड,*
*तलपी न पूगा तो लग ताई।।*

कवि को रणथंभोर पराजय तथा राव सुरजन का शाही सेना के सम्मुख समपर्ण अनुचित तथा योद्धा- धर्म विरुद्ध कार्य लगा। महाराणा उदयसिंह की सवाधीन भावना से उसे प्रिय लगी। इससे यह प्रमाणित होता है कि जाडा स्वतंत्रता का अनन्य उपासक तथा उद्बोधक कवि था। उसकी दृष्टि में जो शासक अपना कुल-गोरव आन-मान त्यागकर शाही सेवा अंगीकार करता वह क्षात्र धर्म से बिमुख हुआ व्यक्ति था। महाराणा प्रतापसिंह की स्वातंत्र्य-साधना का स्वागत करते हुए उसने युद्ध-कार्यों का समर्थन किया है। और न्याय तथा नीति सम्मत बखानते हुए यह भी कहा है कि भूमि सदैव ही युद्ध द्वारा ही प्राप्त होती है। 'वीर भोग्या वसुंधरा' से कवि पूर्णरूपेण परिचित हैं--

*नाग बंगाळ असंख नीजामें,*
*श्रेणि ध्रवी खत्रवट सहाई।*
*असिवर तणी इळा उदावत,* 
*आवी अगैस श्रेणि उपाई।।*

वह बादशाह अकबर द्वारा राजपूत आन-मान को कपट-चातुर्थ्य तथा नीति कुशलता से नष्ट करने की नीति को जानता है। इसलिए महाराणा प्रतापसिंह के क्षत्रियत्व, धर्म-भावना और स्वातत्र्य प्रेम की सराहना करते हुए यवनो की सेवा करने वाले क्षात्र-मर्यादा से विमुख अन्यान्य नरेशों को स्पष्ट कहता है--

*लख जूटे मीर स खुटै लोहे,* 
*लख द्रव्य कोड़ी भंडारां लाइ।*
*अकबर वरतन दियो ऊँवरां,*
*पातल राण तणे पसाइ।।*

कवि के सम्मुख प्रतापसिंह ही स्वतंत्रता का  ऐकाकी जागरुक प्रहरी है। केवल उसी की तेग के प्रताप से शांहशाह पीड़ित है--

*हेक ताई कुलवाट हालै,*
*भिड़ण बांधे नेत भाले।*
*साह अकबर हीये सालै,*
*तुझ तेग प्रताप।।*

इस प्रकार महाराणा प्रतापसिंह की खडग-बल से अर्जित सम्पत्ति और सुयश की देवगण द्वारा सवीस्मय सराहना की जाती है--

*उत्तिम मधिम देवराज ऊपरि,*
*कै घट राखै रमै कळा।*
*धार खड़ग वे मयंक कळोधर,*
*किति अनै चलवी कमळा।।*

कवि के मुक्तक गीतों में स्वतंत्रता की भाव धारा पग पग पर प्रबल प्रवाह के साथ बहती लक्षित होती हैं। शाही अधीनता-रत राजस्थान के शासकों की कुल गोरव-च्युति तथा धर्म-विमुखता की कटु आलोचना कवि महाराणा अमरसिंह द्वारा भी करवाता है--

*राण रूप पयपै रांणो,* 
*रुख त्रय साह सरिस मनरंजि।*
*थान भ्रसट काइ चाकर थीयै,*
*भिड़ी संग्रहा क फौजां भंजि।।*

कवि जाडा मेहड़ू के हृदय में यह सतत चुभता प्रतीत होता है कि राजस्थान के शासकों ने मेवाड़ के शासकों के विरोध पराधीनता का पंथ क्यों स्वीकार किया। इसलिए महाराणा अमरसिंह की स्वाधीनता के प्रति अडिग भावना कवि की भाषा में अभिव्यक्त है--

*डगमगे किम वाय डूंगर,*
*किम द्रुनासै तेज दिनंकर।*
*पित जे रांण सरण विज पिजर,*
*अकबर सरिस मिले किम अंमर।।*

जाडा मेहड़ू के मुक्तक काव्य में स्वतंत्रा की पवित्र भावना का ओजस्वी स्वर गूंजता मिलता है। अकबर के दरबार में सम्मान प्राप्त कवि महाराणा प्रतापसिंह तथा महाराणा अमरसिंह के प्रतिद्वन्द्वी जगमाल का राज्यश्रित कवि जाडा निर्भीकतापूर्वक महाराणाओं के स्वतंत्रता-संघर्षो की सराहना करता है। इस प्रकार कवि जाडा की स्वतंत्रता-भावना, युग दृष्टि, सत्यभाषिता, मातृभूमि-भक्ति, अति निर्भीकता तथा साहस इत्यादि चारित्रिक विशेषताओं का बोध होता है। उसने किसी भी योद्धा में वीरा-दर्शका उन्मेंष से देखा शत्रु-मित्र भावना से अलग हट कर उसकी प्रशंसा की। उसने शाही सेनानायक राजा रामदास कछवाहा, खंगार जगमालोत कछवाहा, रावत दुर्गभान सिसोदिया प्रभृति वीरों की भी सृह्र्दयता के साथ सराहना की है। अतः यह स्पष्ट है कि जाडा स्वतंत्रता, वीरता, सिद्धान्त प्रियंता आदि गुणों का अनन्य पूजक कवि था।

संस्कृत के आचार्यों ने अपने लक्षण ग्रन्थों में अलंकारों की महत्ता का बहुविधि प्रतिपादन किया है। भाषा के आचार्य देव, मतिराम केशव, महाराजा जसवंतसिंह, चितामणी, सूरति मिश्र प्रभृति विद्वानों ने भी संस्कृत के आचार्यों का अनुगमन कर अलंकारों का महत्व स्वीकार करते हुए उनका विशद विवेचन किया है। उन्होंने अलंकारों को काव्य-सौंदर्य वर्धक, तथा भाव-प्रभावोत्पादक उपकरण माने है। कविआचर्य देव के अनुसार अलंकारों के धारण करने से जैसे सुन्दरी के लावण्य में वृद्धि हो जाती है वैसे अलंकारों से भाषा और भाव में सौंदर्य अभिवृद्धि हो जाती है। चिन्ता मणि ने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है--

*अलंकार ज्यो पुरुष को,*
*हारादिक मन मानि।*
*अनुप्रासोपमादिक,*
*कविता अलंकार  ज्यौ अनि।।*

राजस्थानी (डिंगल) काव्यो में वयण सगाई (शब्द मैत्री) और अनुप्रासादिक अलंकारों की भरमार है। वयणसगाई अलंकार तो डिंगल काव्य की अन्यतम विशेषता है। कविवर जाडा के काव्य में वयण-सगाई के समस्त प्रकारों के अनायास प्रयोग सहज रुप में प्राप्त हैं। किसी भी छंद, द्वाले तथा पक्ति को उठाकर देख लीजिए सर्वत्र वयण-सगाई मिल जाएगी। वस्तुत: वयणसगाई अनुप्रास कोटि का ही राजस्थानी का बहु व्यवहत एक अलंकार है। वयण-सगाई का एक उदाहरण उदधृत है--

*नवांकोट नाईक्क निभे नरिदं।*
*वडा विरद झल्लाज वाकिम विद।।*

शब्दालांकारों में अनुप्रास के वृत्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, लाटानुप्रास, छेकानुप्रास, सर्वान्त्यानुप्रास आदि समस्त रूपों तथा यमक, पुनरुक्तवदाभास और श्लेषादि का प्रयोग जाडा ने किया है। यहां कुछ उदाहरण अवलोक्य हैं--

*वृत्यनुप्रास-- (क) मछरि वंस खटतीस मांहे ।*
   .                  *सूरधीर सग्राम साहे।।*
                       *गयद गोरी गूडि गाहे।*
                         *मुगति लीजे माल।।*

  .  *(ख) कले मुगल कर लेह कटारी ।*
          *मारियो मुगल कटार मल।।*


*श्रुत्यनुप्रास--*

.      *धन जत सत बळ सामिध्रम अमर नमन विथिये इम।*


*लाटानुप्रास--  वाळण वैर धणी घर वाळण ।*

*छेकानुप्रास-- फरि फरि फ़ौज फ़ौज फुरळता।।*


*अन्त्यानुप्रास--  (१) दड़के दमंमां गंम गंमा संम समां सद्द्ए।*
*(२) रणतूर रुड़ीयं गयंद गुड़ीयं गयण उड़ीयं गज्ज।।*

*यमक--(१) सादूळी सादूला सहज्जे सहामें।*
*(२) उदार आपि जीमो अभंगघणी,*
*लाज वप जूझ घण।।*


*पुनरुक्तवदाभास-- (१) जोगणि विणा कुण सकति दांणाव जड़े।*
*(२) पिड़ि मालौ धमचालि पइठ्ठो।।*

अर्थालंकार--

           काव्य में अर्थ द्वारा सौंदर्य चमत्कार- प्रकाशन अर्थालंकार कहलाते हैं। अर्थालंकारों में काव्य-सौंदर्य का आधार शब्द न होकर अर्थ होता है। कवि जाडा मेहड़ू अर्थालंकारो का भी विदग्ध-प्रयोगक्ता है। अर्थालंकारों में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, ध्वन्यर्थ-व्यंजन, विरोधाभास मानवीकरणा, स्वभावोक्ति, श्लेष आदि के भरपूर प्रयोग प्राप्त होते हैं। अर्थालंकारों में भी रूपक कवि का 'मन भावना' अलंकार है। रूपक के सांगरूपक, निरंकरूपक, तथा परम्परित रूपक तीनों भेदों में कवि को सावयव रूपक अधिक प्रिय है। डिंगल के आचार्य श्रेणी के विदुष कवियों ने युद्ध-वर्णन के शताधिक रुपक रचे हैं। कवि जाडा मेहड़ू ने अपने रुपको में कछवाहा वीर राजा रामदास को गोरक्षनाथ, योगीराज, महाराणा उदयसिंह को उत्तुग आकाश, रावत दुर्गभान चंद्रावत को गरुड़, मानसिंह चौहान को वाराह तथा राजकुमार दूदा हाडा को अगस्त्यमुनि के रूप में वर्णित किया है। इनमें कवि ने युद्ध नायकों को क्रमश: गोरक्षनाथ, योगीराज, आकाश, गुरुड़, वाराह एवं अगस्त्यमुनी तथा प्रति नायको को सर्प, प्रलंब, नाग, सिंह समुद्र आदि चित्रित किये हैं। यहां सांगरुपक के दो उदाहरण दर्शनीय हैं--

*१. पयाताळ गिर श्रग तिमरक दर कुदरन्ती,*
      *किसन चील हबसी छत्रपती फणापती।*
*नाळी धाड़ फुंकार कोट कुंडळी प्रवेश।*
*गरळ झाळ आतस्स डसण गोळा संपेस।।*
*धन जत सत्त बळ समिध्रम अमर नमन विथियै इम।*
*साझीयौ विमर आसेरगढ़ रांमदासि गोरख्ख जिम।।*

*२. बह झंप सजे बह करे कटक बळ,*
        *नमणि करावण तणे नियाइ।*
*वानर असुर उदेसिघ ब्रहमड,*
         *तलपि न पूगा तोलग ताइ।।*
*फाळ फ़ौज घण मंडे फारक,*
         *हठि सम चढ़े मनावण हीर।*
*मछर तुझ आंबर मेंवाड़ा,*
         *मुगटि न पूगा अकबर मीर।।*
*आफलि तरस सेन बह आणे,*
      *मिळण कळण मांटीपण मांह।*
*सूरत तुझ गयण सांगावत,*
      *पलंब न आभड़ीयौ पतसाह।।*
*खीजे खपे खजीना खाय,*
        *पोरिस सयल दिखाले प्राण।*
*कपि काबिली न पुगौ कूदे,*
        *खग नै तूझ वडिम खुमांण।।*

उपमा के पुर्णोंपमा, लुप्तोपमा, रसनोपमा, मालोपमा समुच्चयोपमा आदि भेद माने गए हैं। यहां उपमा के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं--

*पूर्णोपमा--*
            
           १.       *रूधो दलै मालदे राउत।*
                     *पीड़ि पंचयण जेम पांचाउत।।*

           २.      *रचीयौ जेहो जग रमायण।*
                    *तेहौ मंडीयौ चीत्रोड़ायण।।*

*१.  मालोपमा --*

*१. उभै चन्द्र त्रई तेज चत्र दवत्त प्रभत्ते।*
 *निगम पंच खट बाण सपत रितिहि पर व्रते।।*
 *ऊवह आठ नव सिध्दि तप्प दसनाथ प्रतप्पे।*
*ईग्यारह अवतार रुद्र बारह थिर थप्पे।।*
*आलमपनाह जल्लालदी खम्याल मुकटेसवर।*
*तब किति राम रघुनाथ जिम त्रेविलोक  सचराचर।।*

       *महरण चा गरब जिम कुंभ उतपति मुड़े।*
       *खरै तप सूर रै जेम दाहौ खड़े।।*
       *गज चरण तणो गजरूप धाए गुड़े।*
        *जोध सुरजण तणो दरीखानै जुड़े।।*

*उत्प्रेक्षा--*
             *१. दीठे सत्र सांके कमो जाणि दुत्तो।*
               *रिमां थाट रोले रणंताळ रुत्तो।।*

           *२.  उदयासिघ प्रतपै ऐहो।*
                *जाणि गोकळी कान्हक जेहो।*


*ध्वन्यर्थव्यजन---* जहां ध्वनि द्वारा वातावरण साकार हो उठता है, वहां सब ध्बन्यर्थव्यंजन अलंकार होता है। डिंगल काव्य में युद्ध की भयानकता के चित्रण में यह अलंकार बहुरूप में प्रयोगायित मिलता है। जाडा द्वारा भी यंत्र तंत्र है इसका प्रयोग अनायास ही होगया है। उदाहरण है---

*१.दड़के दमंमां गम गंमा संम संमां सद्दऐ।*
  *डमरू डहकं डोडि डकं वाणि सकं वद्दऐ।।*

. *२. पाताल पस्सरां रे कीधै कूंजरां।*
      *पूठे पांखरां रे घट घूघरां।।*
     *घट सौ घूघर पूठि पाखर थड़े दाणव थट्ट।*
     *दस देसरा भूपाळ डरपै जाइ जू जू वट्ट*

*मानवीकरण----*
   
. *१. अमर खेल अपछर सुवर ईस दे आभरण,*
               *पुणे इम दुरंग रणथभ अणपाल।*
      *आईया दले अकबर घणी सांपनो,*
                *मूझ जो सांपजत धणी जैमाल।।*

. *२.  हाम मो वड वडी रही माझळी हीया,*
              *सामी सिरि प्रामीयौ दळा खुरसाण।*
        *पुणे इम दुरंग रणथभ मो ऊपरां,*
              *वीरउत हुवत तौ लहत बाखांरण।।*


*स्वाभावोक्ति---*

*भूपाळ भूप कळह कूप सेल खूपं सेलयं।*
*असिमरे असिमर फरे वडफर खजरि ख़ंजर खेलयं।।*
*मिळी हत्थमत्थे सूर सत्ये बत्थे बज्झऐ।*
*कमधा पमारां खग्गधारां भड़ उधारां भज्जऐ।।*


*अर्थश्लेष--*

    *खाना खान नवाब रै खांडे आग खिवंत।*
    *पाणी वाळा प्राजले, त्रण वाळा जीवन्त।।*


*विरोधाभास--*

*खाना खान नवाब रौ, ओही वडो सुभाव।*
*रीझ्यां ही सरपाव दै, खीझ्या ही सरपाव।।*

उपत्तिदर्शित दोहा शब्दार्थ वृत्ति दीपक का भी सुंदर उदाहरण है। प्रथम सरपाव शब्द का अर्थ वस्त्र विशेष है तथा द्वितीय सरपाव का दमित करना है। इस प्रकार शब्द और अर्थ की सुंदर आवर्ती कवि के वर्णन नैपुण्य की खूबी है। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि कवि ने अभिव्यक्ति पक्ष को सबल बनाते हुए कतिपय अलंकारों का सहज प्रयोग किया है।

कविवर जाडा मेहड़ू, दुरसा आढा, दुदा अाशिया, प्रभृति चारण कवि समसामयिक एक एक ही जातीय तथा राज्याश्रीत कवि थे। इन कवियों ने अपने समकालीन योद्धाओं की रणकीड़ाओ का वीररसमयी डिंगल भाषा में वर्णन किया है। समसामयिता तथा विशेष-समता के कारण इनकी भाषा में वैसे अधिक अंतर नहीं है; तब भी कवि की अपनी मौलिक सूझ-समझ शब्द-चयन तथा प्रभाव-प्रक्षेणत्व अपना अलग होता है। कवि जाडा का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। वह भावों के अनुकूल शब्द-प्रयोग में शुदक्ष है। उनके काव्य से प्रतीत होता है कि वह सिद्धांत-प्रेमी सत्यभाषी, स्वतंत्यानुरागी और वीरता का अनन्य पुजारी था। यद्यपि उसने शत्रु-मित्र अभय पक्षीय योद्धाओं के श्रेष्ठ-कर्मों का वर्णन किया है। महाराणा प्रतापसिंह, तथा रावत जयमल की वीरता का जहां उन्मुक्त स्वर में यशगान किया है, वहा बादशाह अकबर, वीरवर खंगार कछवाहा, राव दुर्गभान सिसोदिया आदि की वीरता, धीरता तथा स्वामिभक्ति का भी प्रभावपूर्ण शब्दावली में वर्णन किया है। वीर तादि युगीन श्रेष्ठताओ का वर्णन करना कवि को अभीष्ट रहा है; किंतु किसी राजा, बादशाह एवं योद्धा की मिथ्या प्रशस्ति करना नहीं। उसी के समकालीन प्रसिद्ध कवि दुरसा आढा के काव्य में हम एक ही पात्र का  द्विविध वर्णन पढ़ते हैं। एक स्थल पर दुरसा मुगल सम्राट अकबर को परमवीर लक्ष्मण, अर्जुन और श्रीकृष्ण के समतुल्य अंकित करता है--

*बाणावळी लखण कै तूं अरजण बाणावलि,*
        *सरदस रोळण कंस संहार।*
*सांसौ भांज हमाउ समोर्भम,*
          *अकबरसाह कवण अवतार।।*

वहां दूसरे स्थल पर उसी स्तुल्य बादशाह को वह--

*गढ़ उचो गिरनार, नीचो आबू ही नही।*
*अकबर अध अवतार, पुन अवतार प्रतापसी।।*


इसी प्रकार दुरसा शाही सेवा-रत राजस्थानी नरेश महाराजा रायसिंह, राजा मानसिंह कछवाहा की अपरोक्षत: एक तरह से भर्त्सना करता है और दूसरी और राजा मानसिंह का अति प्रशंसनीय चरित्रोल्लेख करता है--

*सीस तुरक्कां हिदुआ निध्रसै त्रंबाला।*
*जेती अकबर खाटिया तेती रखवाला।।*
*छत्तीसै ठकुराइयां तूं मान वडाला।*
*मान वडा तुझ सूं गिरधरण गवाला।।*
*मान वडा पख ताहरा बे बे बिरदाला।*
*तू आवेरि ऊजाळणा, ऊजैण उजाला।।*


परंतु दुरसा की भाति जाडा के काव्य में उनके व्यक्तित्व की व्दिविधत्वता नहीं प्रकट होती है। अतः जाडा का व्यक्तित्व नि:छल और एक रंग से ओतप्रोत कहा जाता है।

जाडा मेहड़ू युद्धो के चित्रण तथा युद्धवीरों के शोर्यादि गुणों का कुशल चितेरा है। उसने अपने चरित नायकों की वीरता को वाराह-सिंह, अगस्त्यमुनि-समुंद्र, सिंह-गज, गरुड़- नाग इत्यादि रूपोंको के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से सशक्त भाषा में अभिव्यक्त किया है। रावत दुर्गभान और विपक्षी मुजफ्फर को पक्षीराज और पनंग घोषित करते हुए कहा है--

*आदि के वैरि तणे छळ अकबरि,*
*ओरिस सूरत छड़े अगाहि।*
*दुरगो गरुड़ आवियो देखे,*
*सळके पनग मुदाफरसाहि।।*
*कजि रस-खेद सांमिध्रम कारण,*
*करग चंच वाउरि करिमाळ।*
*चढीयो उरि हरिरथ चीत्रोड़ों,*
*चील चालीयो चामरियाळ।।*
*वाळण वैर धणी धर वाळण,*
*विसरि चईनो वांकिम विद।*
*अचळ तणो धखपंख आवीयो,*
*मणिधर मुड़ीयौ सुत महमंद।।*
*पहली अड़स काज काबिल पह,*
*नख झड़ देयतो खड़ग निहाउ।*
*राउ खगपति मिळीयो चंदराउत,*
*रहीयो फणधरि गोरी राउ।।*

रसखेद (शत्रुता) और हरीरंथ (गरुड़) जैसे शब्दों का निर्माण और प्रयोग सामान्य कवियों के वंश के प्रयोग नहीं है। ऐसे विशिष्ट प्रकार के शब्द सिद्ध कवियों के काव्य में ही वह व्यवह्रत मिलते हैं। साथ ही कवि ने रूपक का बड़ा फबता हुआ विधान किया है। यधपि  उसके समवर्ती दुदा अाशिया ने भी रूपक गीत रचे हैं। दूदा के रूपको में वर्णन-क्रम का निर्वाह है, पर जाडा के तुल्य सबल, सुगठित, स्तरीय, शब्दावली नहीं है। दोनों की भाषा, वर्णन-कौशल तथा भाव-सौन्दर्य की तुलना करते हैं तो जाडा का पासंग भारी दर्शित होता है। उदाहरणार्थ दूदा द्वारा रचित राव सुरताण देवड़ा का गीत प्रस्तुत है--

*कोळी कर भांग तिजारो कमधज,*
*गुळ खुमाणो गाळवीयो गाळवीयो।*
*कूंडा मांहि कचर किरमाळा,*
*कहर कसूंबौ सोढ़ कियो।।*
*सीध औसधी अपछर सीघ घाले*
*जगड़ मिठाई घात।*
*भारथ कसट मुसटीया भेळा,*
*भिड़ते राउ अनेसी भांत।।*
*विजिया सुपह रचै दांतीवड़,*
*पोसत मडोवरौ पह।*
*मांहे गुड़ मेवाड़ों मेंळे,*
*रण घोळी त्रण किया रह।।*
*भाण सुजाव भिड़ते भारथ,*
*किरमाळा आहूत किया।*
*दळा सहित दळनाथ देवड़े,*
*जहर त्रणे नर जिरविया।।*

जाडा मेहड़ू के समसामियक कवियों में माला सादू भी राज्यमिश्रीत एवं सुख्यात कवियों में गण्य है। उसने भी राव सुरताण और जगमाल के दत्ताणी के युद्ध का अपने एक गीत में आख्यान किया है, पर माला के गीत में भी जाडा जैसा भाषा प्रवाह, एवं  शब्द सोष्ठव नहीं है। उदाहरण के लिए माला का एक गीत प्रस्तुत है--

*आसीस दे सुरताण अपछर,*
*निग्रह वडा वधारे नेह।*
*वर इछित लाघा तो विढ़ता,*
*छत्रपतिया घण वाधा छेह।।*
*पुरख गोपाल सारखा पामिया,*
*ईसर केहर वर परचंड।*
*सिघ जगड़ रायसिघ, सारखा,*
*वर सादुळ सारखा सवड़।।*
*राउ सुरताण तणे जुघ रहिया,*
*जोई वर लाघा जुआ जूआ।*
*वर तरकस बंध सदा वरुती,*
*हमकै वर गजबंध हुआ।।*
*वडा सुपह सरग लोग वसिया,*
*धर वाळतां धर छेह खगवार।*
*सुर कामण कहियो भव सारो,*
*आबूराव कीयो उपगार।।*

कवि जाडा के काव्य से ज्ञात होता है कि वह डिंगल के लक्षणाग्र थो का भी सुज्ञाता था। उसने भाषा के अलंकारों की भाती ही डिंगल काव्य वर्णन-रीति जथाओ के भी यंत्र तंत्र मोहक प्रयोग किए हैं। रावल मेघराज हापावत महेचा पर रचित गीत में सिरजथा का कवि ने बखूबी निर्वाह किया है  उदाहरणार्थ गीत की पंक्तियां दृष्टव्य है--

*खळ मंस खड़ग खळ खळीयळ खाटग,*
     *खळ चळ वळ जोगणि पत्र खंति।*
*प्रबि प्रबि मेघराज निज पाणे,*
     *पाट भगत राउळ पूजंति।।*
*सत्र धड़ धार सत्रा सिर ईसर,*
      *सत्र चै श्रेणि सकति समरंगि।*
*अणभंग कमध जूजुवा आपे,*
       *इम आराध करै निय अंगि।।*
*रिम तणि खग रिम सीस महारुद्र,*
        *रिम चै रुधिर रुद्राणि रंजेय।*
*हींदूवो तिलक मेघ हापाउत,*
       *दळ दळ खडे सबळ बळी देय।।*

अपने चरित्र नायक के चरित्र का वर्णन करने में जाडा मेहड़ू अपने सम-सामयिक कवियों से बढ़कर है। वह आश्रयदाता से दान-धन के लिए सीधी याचना नही करता है अपितु युक्ति पूर्वक अन्य कवियों को इंगित करता है कि जगमाल जैसे बड़े उदार की सेवा कीजिये। वह श्रीराम की भाँति सहज उदार तथा पणवीर है--

*बासण अज रांमि वभीखण व्रवीयौ,*
            *ऐक बयण रीझीयै अपाल।*
*मोटा हुवण काजि मेंवाड़ा,*
            *मोटा ओळगिजै जगमाल।।*

किन्तु जाडा का समकालीन दुरसा आढ़ा महाराज रायसिंह के गीत में वर्णन करता हुआ कहता है--

*कलहगुर दानगुर हालियो कलाउत,*
         *लाख ऊपर कवण वाग लेसी।*
*अम्हां गज मौज मौताद कुण आपसी,*
         *दान सौ साख कुण रीझ देसी।।*

जगमाल के चरित्र की अन्यतम विशेषताओं में उसकी अपरिमित अविचलित युद्ध वीरता का कवि उसी के मुख से वर्णन करवाते हुए कहता है--

*आहाड़ों निवड़ जगड़ इम आंखे,*
              *कवलो खत्रवट तणो कस।*
*लोहड़ो सरग लियूं बळ लोहां,*
               *वडो सरग कोई करू वस।।*

जगमाल प्रतिज्ञा का धनी था। उसक़े वचन और कर्म में समरूपता थी। वह वचन देकर कभी मुकरता नहीं था। उसके स्वभाव की उपर्युक्त खुबिया जाडा ने उसके मृत्युपरांत लिखित एक गीत में अभिव्यक्त की है। सम्बद्ध दो द्वाले अवलोक्य हैं--

*बिहसि बिरदैत दोय खग बांधतौ,*
                *आरंभगुर बोलतौ अपाल।*
*महि प्रिसणां मारिसी मरिसी,*
                  *जाणता इम करिसी जगमाल।।*
*कड़ीया उभै नीझरण कसतौ,*
      *खरौ बोलतो चीत खरै। *मारण मरण दिसा मेंवाड़ों*
*कहता टाळो नही करै।।*

इस प्रकार कवि जाडा का क्या काव्य क्या भाषा, क्या भाव, क्या चरित्र चित्रण, और क्या अभिव्यक्ति पक्ष सभी प्रकार से उच्चकोटि का है। काव्य नायक, घटना-प्रसंग वर्ण्य विषय आदि के आधार पर जाडा अपने युग का पाक्तेय कवि माना जा सकता है। वह वीररस का कवि है और उसकी कृतियों में वीरता के उदात्त गुणों का ओज-प्रभामय स्वर-गान है। किंतु मध्यकालीन अन्य लक्खा, दुरसा, दूदा, रंगरेला आदि अन्य राजस्थानी कवियों की भांति उसकी भी रचनाएं आशा के अनुकूल उपलब्ध नहीं हुई है। जितनी जो सामग्री मिली है उसी पर फिलहाल संतोष करना पड़ रहा है। संयोग और रचनाए मिली तो ग्रंथावली का दूसरा खंड भी प्रकाशित करने की योजना है।

प्रस्तुत संग्रह की लगभग समस्त सामग्री-साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर के संग्रह से मिली है। यह सामग्री साहित्य संस्थान में वि. सं. १७१६ में लिपिबद्ध 'डिंगलकाव्य- संग्रह' ग्रथाक ३०२ में सुरक्षित है। संस्थान के सदस्य मित्रों ने मेरे आग्रह पर इसे प्रकाशनार्थ सुलभ की एतदर्थ मै विनम्रता पूर्वक उनका कृतज्ञ हूं। विशेषतः संस्थान के निदेशक डॉ. देवीलालजी पालीवाल, डॉ. शांतिलाल भारद्धाज का विशेष आभारी हूं। जाडा मेहड़ू रचित नवाब रहीम के दोहे तथा नवाब रहीम कथित जाडा की प्रशंसा के दोहे देवरी के बहादुरदान किशोरदान से मेरे द्वारा भेंट स्वरूप प्राप्त शाहपुरा संग्रह में सुरक्षित राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी संग्रह से लिये गए हैं। ग्रंथावली के सम्पादन में श्री सीतारामजी लाळस, डॉ. रघुबीरसिंहजी सीतामऊ श्री डूगरसिंह मेहड़ू सिरसिया, श्री सज्जनसिह मेहड़ू  श्री भूरसिंहजी केफाना डॉ. देव कोठारी, डॉ. ब्रजमोहन जावलिया, डॉ. कल्याणसिंह शेखावत तथा कविराज तेजदानजी आशिया आदि के सहयोग के लिए आभार-नत हु।

राजस्थानी शोध संस्थान के निदेशक महोदय ने ग्रंथावली को आधोपांत पढ़ कर जो सुझाव दिये हैं, उसका आभार व्यक्त करना परम्परा मात्र होगा, यह तो उनका कार्य ही था।


                                         *--सौभाग्यसिंह शेखावत*
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उपरोक्त माहिती:- जाडा मेंहडु ग्रथावली. पुस्तक से प्राप्त हुई
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