Friday 13 January 2017

कविस्वर लुणपालजी महेडु (चारण) ढोला-मारु

कविस्वर लुणपालजी महेडु (चारण)
   ढोला-मारु
   शंतरज मे तिसरा स्थान उंट-बिशप-केमल का हे. हमारे देवगुरु की तरह पस्चीम में बिशप पादरी देवगुरु है. जो आगे की नोधं मे पृथम अैतहासीक महागुरु पेगंम्बरजरधुष्टॄन (लालाश की पडता सोनेरी उंटो के मालिक ) के हेखमनियन यादें को सन्मान ते हुये. केमल शब्द उंट की तीरछी (Diogonal) चेस-शतरंज की चाल समज आती है उैसा गोविंद उगृवाल की नोंध है. लोकसाहीत्य ओर चारण डींगल के पृथम कविस्वर लुणपालजी महेडु कृत विख्यात ढोलामारु की कथा के ४५६ दुहे ( सौ. युनि६/८७,३०/१५९४,९३/३३२१)मिलती है. जो की सतसई दुहे ७०० होने चाहिये ? जिस का पृमाण राजस्थान ६८५ दुहे( उनुप लाइब्रेरी बिकानेर ) केटलोग ४७ पृ १७ ) देता है . जिसे कवि किल्लोल ( वि.१५३०)ओर जैन साधु कुशललाभजी( रत्नु ! ) रचित ढोलामारु री चोपाई ( वि १६७७) राजस्थान मे सहआदर टंकन है . ढोलामारु री वात में पृथम दुहाआख्यान पृथम लोककथा , रितरिवाज, पशुपक्षी के संवाद (गुणाढय) , बारमासा, खगोऴ,भुगोऴ, ( जेसलमेर-पुंगऴ ओर नरवर-मारवाड़ ) , चारण परंपरा के पसाव आदी वैवीध्यो, ओर भारतिय इतिहास के मातृ उपासकों महान सात वाहन हाल ( कवि वत्सल) की पाकृत गाथा सतसई (७०० गाथा) आदी पाृचीन उतर वैदीक,पाकृत ओर अपभंृश ए तिनो भाषाकालीन संस्कुतीक ईतहास के चारण - डींगल स्नेहख्यान मे उतारनार कविस्वर लुणपालजी महेडु रण के राजवी उंटो के पाृचीन शब्दों उच्चार केृमल , करलियो-कहलियो-करहो-करहट-करहल,करली( उंटडी) , उंटो के टोला के लिये वधृ  ओर उस्वो के लिये तरि ( तुरकान-तोखार) केकाण, घोडो ओर हाथी के लिये मेंगल-मयंद-मेंमत- गंयदगति ( गजगामिनी) शब्दों का पृयोजन  कर जैसलमेर ,मारवाड़ ,गुजरात ,कच्छ सरहद, पाृचीन सिंध ( थरपारकर) हिगंलाज सिमा , उतरवैदीक पशीॅया इरानियन,ओर गृीक Gedrosia ( हिगंलाज ) कह के हज़ारों वषॅ के संरक्षंक पशुमित्रो की सेवा के अध्यॅ देते हे.
                 ढोला ओर मारुई
के शुरा के पंडता , के गरुआ गंभीर ;
नारी नेह नचाडीया , जे जे बावनवीर.....१
       जिसने कीतने शुरा, कीतने पंडीतो ओर अनेक गरवा ओर गंभीर नर ओर नारी को पेृम पास मे बांध के नचाया ऐसे भगवान कामदेव को नमस्कार हो.

पटराणी पीगंळ तणी ; अपछर री अणहारी ;
आछी ऊमा देवडी , सुंदरी अेणी संसारी.....२

          पिंगल राजा की पटराणी ऊमा देवडी ऐ संसार मे सवोॅच्च सुंदरी ओर उप्सरा सरीखी रूपवान नारी थी .

माथुं धोये मेडी, ऊभी सुरज सामंही;
ताइ उपनी पेट, मोहणवेली मारुई.....३
       ऐ राणी उमा देवडी अेक वेळा त्रॅुतुस्नान कर राजमहेल के झरुखे से भगवान सुयॅ सामने खड़ी ओर देवकृपा से राणी के उदर मोहनवेल सरखी मारुई नाम की राजकुमारी जन्मी.

जनम हुवो पुत्री तणो , ओछव हुवो उपार;
उती सुदंर सरूप , अंग पदमण रे अवतार...४
           ए राजकुमारी जन्म से राज्य में आनंद उत्सव हुआ , उतीसुंदर रूप सपृमाण अंगलठवाली राजपुत्री पदमणी का अवतार थी,

भुपत भायो भाटने, कीधो कोृड पशाव ;
चालीयो गढ नरवर भणी, पृणमे पींगलराव...५
        उस समय राजा पिंगल उती आंनदीत हुये ओर कवि भाया बारोट को करोड पसाव से नवाज़ा दीया. तब कविश्वर राजा को सलाम नरवरगढ की ओर चले.

वरस डोढ वोळे पछी, तास अंदृ नह वुठे;
खड पाखेइ लोक खंड , वरतणी गियां अठे..६
  
          जब देढ साल की मारूइ हुइ, उस साल मेघराजा  रिझे नही, ओर घासचारे बिन व्याकुल लोक अपने मालढोर लेके दुष्काल उतारने विदेश चले.

मारुं थाकां देशमां, अेक न भांजे पीड;
को'दि थिअे वृसणुं, काफा कुफा तिड...७

      मारुइ ! तारे देश की अे पीडा कभी टळी ज नहीं , सारा वरस कभी होय , बाकी तो दुष्काल ओर तीड के टोलें ए पृदेश में आते ही रहते है.

पिंगल परियाणी पुछीया, किजे त्रेवड कांइ;
कोयेक  देश अटकळो, जेथ वशीजे जाइ...८

        तब राजा पिंगल ने जाणतल माणुस बुलाके कहा “ कोइ उपाय करो, कोइ देश बतावो जहां हम सब दुष्काल के वसमे दीन बिताने जा बसे ".

खड जल पाखे गो रूआं , देश थियो दकाळ;
पोह करे खड पाणी पृघळ, सं णि पींगळ भूपाल..९

       ऐ पोगळ देश मे सवॅत्र दुष्काल व्याप गया है , भुख तरसी गाये खड-पाणी के अभाव से भांभरडां दे रही ओर पृजाजन कहे “राजा सुणो अब कही बहोले खडपाणी वाले पृदेश दुष्काल उतारने जाइ".
         -----कृमश

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