Sunday 23 October 2016

कविस्वर लुणपालजी महेडु

कविस्वर लुणपालजी महेडु (चारण)
   ढोला-मारु
   शंतरज मे तिसरा स्थान उंट-बिशप-केमल का हे. हमारे देवगुरु की तरह पस्चीम में बिशप पादरी देवगुरु है. जो आगे की नोधं मे पृथम अैतहासीक महागुरु पेगंम्बरजरधुष्टॄन (लालाश की पडता सोनेरी उंटो के मालिक ) के हेखमनियन यादें को सन्मान ते हुये. केमल शब्द उंट की तीरछी (Diogonal) चेस-शतरंज की चाल समज आती है उैसा गोविंद उगृवाल की नोंध है. लोकसाहीत्य ओर चारण डींगल के पृथम कविस्वर लुणपालजी महेडु कृत विख्यात ढोलामारु की कथा के ४५६ दुहे ( सौ. युनि६/८७,३०/१५९४,९३/३३२१)मिलती है. जो की सतसई दुहे ७०० होने चाहिये ? जिस का पृमाण राजस्थान ६८५ दुहे( उनुप लाइब्रेरी बिकानेर ) केटलोग ४७ पृ १७ ) देता है . जिसे कवि किल्लोल ( वि.१५३०)ओर जैन साधु कुशललाभजी( रत्नु ! ) रचित ढोलामारु री चोपाई ( वि १६७७) राजस्थान मे सहआदर टंकन है . ढोलामारु री वात में पृथम दुहाआख्यान पृथम लोककथा , रितरिवाज, पशुपक्षी के संवाद (गुणाढय) , बारमासा, खगोऴ,भुगोऴ, ( जेसलमेर-पुंगऴ ओर नरवर-मारवाड़ ) , चारण परंपरा के पसाव आदी वैवीध्यो, ओर भारतिय इतिहास के मातृ उपासकों महान सात वाहन हाल ( कवि वत्सल) की पाकृत गाथा सतसई (७०० गाथा) आदी पाृचीन उतर वैदीक,पाकृत ओर अपभंृश ए तिनो भाषाकालीन संस्कुतीक ईतहास के चारण - डींगल स्नेहख्यान मे उतारनार कविस्वर लुणपालजी महेडु रण के राजवी उंटो के पाृचीन शब्दों उच्चार केृमल , करलियो-कहलियो-करहो-करहट-करहल,करली( उंटडी) , उंटो के टोला के लिये वधृ  ओर उस्वो के लिये तरि ( तुरकान-तोखार) केकाण, घोडो ओर हाथी के लिये मेंगल-मयंद-मेंमत- गंयदगति ( गजगामिनी) शब्दों का पृयोजन  कर जैसलमेर ,मारवाड़ ,गुजरात ,कच्छ सरहद, पाृचीन सिंध ( थरपारकर) हिगंलाज सिमा , उतरवैदीक पशीॅया इरानियन,ओर गृीक Gedrosia ( हिगंलाज ) कह के हज़ारों वषॅ के संरक्षंक पशुमित्रो की सेवा के अध्यॅ देते हे.
ढोलों बांधे धोतीया, मालवण धान न खाय:
खोड

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