Thursday, 10 August 2017

कविस्वर लुणपालजी के ढोलामारु रे दोहे

कविस्वर लुणपालजी के ढोलामारु रे दोहे ( सुफी- उन कामलीवाले, Magu, Sophia - दाशॅनीक , षटवणॅ ) आध्यात्मिक रस रंग अथॅ जीस में ढोला यानी परमात्मा ओर मारुं यानी पृकुती - चित इच्छा शकित एेसा दिव्य अनुभूति के रंग  महात्मा संत कबीर की कबीरवाणी में भी फकत ऐक शब्द का परिवर्तित भक्तिपरक साखीआ मील रही है . ये सुफी आख्यान की आगवी यादी  दे रहे है

  अंबरी कुंजा करलीयां, गरजी भरी सब ताल:
   , ताकु कवण हवाल ,
   अखीयन तै झाँइ पडी, पंथ निहारी निहारी:
   जीभ्या मां छालां पडयां , पिव पुकार पुकारी.     ढोलामारु ( लुणपालजी महेडु )

  अंबरी कुंजा करलीयां, गरजी भरी सब ताल:
   , ताकु कवण हवाल ,
   अखीयन तै झाँइ पडी, पंथ निहारी निहारी:
   जीभ्या मां छालां पडयां , राम पुकार पुकारी.      कबीरवाणी । ( संत कबीर )

भकित कवियत्री मेवाड़ी महाराणी मिरांबाइ जन्म वतन मेडात ओर ससुराल मेवाड- राज. देानो राजवंश चारण ओर चारणी साहित्य के चाहक ओर आश्रयदाता. इन राजकुलो का चारणीसाहीत्य के पृसारण में योगदान न हो तो ही आश्चर्य ! मिरांबाइ की कहाती साखीया ओर भजन में भी ढोलामारु के दोहे मील रहे है.

   कागा ! करक ढंढोळे , करि सब ही खाये मासं:
ऐक न खाये लोयणां, पियु देखण की आस...२२४

कौवा सुण मारु कहे, उडी नरवर जाय :
लेइ हमारी पांसळी, ऊस लोभी देखत खाय.
ढोलामारु ६/१७८ लुणपालजी महेडुं

कागा सब तन खाइओ, चुनचुन खाइओ मांस:
दो नैना मत खाइओ, मोहे हरी मिलन री आस.

हरी ए न बुझी बात, माइ! टेक
काढ कलेजो भोंय धरु हो, रामजी
कौवा तुं ले जाय,
जहाँ देश मोरा पियुं बसत है
वे देखें तु ं खाय ... माइ ३
मिरांबाइ सैा. यु . ह. पृ १५३/३९५१
   इसतरह संत कबीर ओर मिरांबाइ जेसे भक्त कविओ के मुख से पृसारीत हुये ढोलामारु री वात के दुहे से पृभावित वितरागी साधु कुशळलाभजी( वि. १६७७) चोपाईबध्ध कर लिख रहे है,

   “ जे पण पर कवि मुख सांभळी, तिण पर में मन रळी.
दोहा घणा पुराणा अछे, चोपाई बंध कियेा में पछे.”

  ए जैन साधु कवि कुशळलाभजी जेसलमेर के रावल मालदे के पुत्र कुवंर हरराज के काव्य गुरु सहयोगे पृथम डींगल छंद शास्त्रगृंथ पिगंळ शिरोमणी दीया है । जीस मे २३ दुहे , २८ गाथा ओर ७१ पृकार के छप्पय लक्षण उदाहरण सहीत दीये है । ७५ पृकार के उलंकार ओर चित्रकाव्य ओर डींगळ नाममाळा पृकरणपयाॅय वाची शब्दबध्ध संकलन देते हुये ४० डींगळ गीतों के लक्षण दीये है (१६३४) इसी उनुसंधान में महेडु कविराज गोदडजी ने चोवीस उवताररां छंद में चोवीस पृकार के डींगळ छंद उदाहरण दीये है

संकलन - यशवंतजी लांबा
युविवसॅल महेडु उल्लायन्स

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